Book Title: Gurutattva Siddhi
Author(s): Suvihit Purvacharya
Publisher: Satyavijay Smarak Jain Granthmala

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Page 68
________________ xkakakakrt.tatutatutatut-tatut.txtstatutkutatutetstatutatutxexentatut tutekartuttitutt-titute (४७) terteretertreteteretetter tretetetretetetretetetrto metrtrtrtrtrtrtetestetrtete te मेकमेवाविरुद्धं च, रागादिरहितत्वात् । आह चअणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जुगप्पवरा । जिअरागदोसमोहा य नण्णहा वाइणो तेण ॥१॥ इति । तस्माद् व्यवहारतो यतमाना यतयो धर्मार्थिना वन्या एव यतः श्रीउत्तराध्ययनेधम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहायरियं सया। तमायरंतो ववहारं गरिहं नाभिगच्छइ ॥१॥ श्री आवश्यके-- ववहारो वि हु बलवं जं छउमत्थंपि वंदई अरिहा। जो होइ अणाभिन्नो जाएंतो धम्मयं एवं ॥१॥ जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारनिच्छएमुअहा ववहार नउच्छेए तित्थुच्छेओ हवइ जम्हा ॥२॥ व्यवहारनयमनुसरत एव हि क्रमेण निश्चयशुद्धिप्राप्त्या निःश्रेयसप्राप्तिर्भवति । अत्र साधुस्थापनाधिकारः संवेगरङ्गशालाग्रन्थतस्तद्गाथाभिरेव लिख्यते यथा । इत्थंतरम्मि सड्डो आसधरो नाम भणइ दुविथड्डो . भयवं जहुत्तसाहू न संति गुरुणो कहं ते य ॥१॥ पिंडविसुद्धिं न तहा कुणंति१ सक्कंपि नायरंति विहिं २ पासत्थाईहिं समं चयंति नालंबणनमणाइं३ ॥२॥ *otukut-t-kut.ket-tatutet.t.titut-tatutet.itt-tukkutatutet-tutekut.ket-tuttitutet-t-trot.tt.txt-krit

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