Book Title: Gurutattva Siddhi
Author(s): Suvihit Purvacharya
Publisher: Satyavijay Smarak Jain Granthmala

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Page 34
________________ pictatatatatertretertatatatatatatatatatatatet tretetretetrtrtetatatataterting कुग्गह कलंकरहिया जहसत्ति जहागमं च जयमाणा। जेण विसुद्धचरित्तत्ति वुत्तमरिहंतसमयम्मि ॥२॥ सम्मत्तनाणचरणा-नुवाइ आणाणुगं च जं जत्थ । जाणिज्जा गुणं तं तत्थ प्रअए परमभत्तीए ॥३॥ इति Vvvvvvvvvvvvvvvvv etetetetztetetetetetetetrtrtetetetetetetetetrtetetateretetetetetetztetetetrtetetrtetetatetetetetztetetet __ व्यवहारप्रथमोद्देशकेऽपि-- चोअग छक्कायाणं तु संजमे जोणुधावए ताव (जाव)। मूलगुणउत्तरगुणो दोण्णिवि अणुधावए (ताव) ॥२॥ ____ अत्र वृत्तिः-हे नोदक ! यावत्षड्जीवनिकायेषु संयमः * प्रबन्धेन वर्तते । तावन्मूलगुणाउत्तरगुणाश्च बयेऽप्येतेऽनुधावन्ति वर्तन्ते इति । न च पार्श्वस्थादीनामपि सर्वथा अवन्द्यत्वम् । आगमे तु-- कारणे जाते प्रकटप्रतिसेविनामपि वन्द्यत्वाभिधानात्।। तदुक्तमावश्यके-- मुकधुरा संपागड--सेवी चरणकरणपन्भट्ठे। etetetutetetotetetetetztetetutetetztetetutetetetetetutetetetetututukatetettatatatatatatetatatatate १ व्याख्या-धूः संयमधूः परिगृह्यते, मुक्ता-परित्यक्ता धूर्येनेति समासः, सम्प्रकट-प्रवचनोपघातनिरपेक्षमेव मूलोत्तरगुणजालं सेवितुं शीलमस्येति सम्प्रकटसेवी चेति विग्रहः, तथा चर्यत इति चरणं व्रतादिलक्षणं क्रियत इति । करणं-पिण्डविशुद्धयादिलक्षणं चरणकरणाभ्यां प्रकर्षण भ्रष्टः-अपेतश्चरणकरणप्रभ्रष्टः, मुक्तधूः स म्प्रकटसेवी चासौ चरणकरणप्रभ्रष्टश्चेति समासस्तस्मिन्, प्राकृत. ३ शैल्या अकारेकारयोर्दीर्घत्वम् ॥

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