Book Title: Gurutattva Siddhi
Author(s): Suvihit Purvacharya
Publisher: Satyavijay Smarak Jain Granthmala
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etetet ctetretetetretetet irtetetetretetretetrtetatatertreteretetetrtete teeteetako सालाइ गिहि घरे वा खज्जग यागाइ करणाइं ॥१०॥ जक्खाइ गुत्तदेवय-पूया पूआवणाइमिच्छत्तं । सम्मत्ताइनिसेहं तेसिं मुल्लेण वा दाणं ॥११॥ इय बहुहा सावज्जं जिणपडिकुटुं च गरहियं लोए। जे सेवंति कुकम्मं करिति कारिति निद्धम्मा ॥१२॥ इह परलोअहयाणं सासणजसघाइणं कुदिट्ठीणं । कह जिणदसणमेसि को वेसो किंच नमणाइ ॥१३॥
इत्यादि।। न वैविधलक्षणा एव साम्प्रतिकसाधवः सर्वेऽपि, केषांचित्सम्प्रत्यपि सर्वशक्त्या यतिक्रियासु यतमानानां यतीनां दर्शनात् । अथ देशतः पार्श्वस्थास्तर्हि वदन्तु तल्लक्षणम् । श्रीआवश्यकेदेसम्मि पासत्थो सिज्जायरभिहडरायपिंडं च । निययं च अग्गपिंडं भुंजइ निक्कारणे चेव ॥१॥ कुलनिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि अ अकारणे विस। संखडिपलोअणाए गच्छइ तह संथवं कुणइ ॥२॥
इति श्री आवश्यकोक्तं प्रसिद्धमेव ।
ननु एतत्सर्वं समुदितं तल्लक्षणं पृथग् २ वा, नैतावत् पृथक् २, एवं हि स्थूलभद्रादीनामपि कोशागृहस्थितौ च.
तुर्मासी यावत् तद्गृह एवाहारग्रहणेन शय्यातरपिण्ड * दोषाद्देशपावस्थत्वप्रसङ्गः । १ यदुक्तं- आवश्यकवृहद्धृत्तौ योगसंग्रहेषु- . "
मलाल
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