________________
६-संस्कृतके विद्यार्थियों, पण्डितों तथा शास्त्रियोंका ध्यान इन लेखमालाओंके द्वारा तुलनात्मक पद्धतिकी ओर आकर्षित होना चाहिए और उन्हें प्रत्येक विषयका अध्ययन खूब परिश्रमसे करनेकी आदत डालनी चाहिए। ये परीक्षा लेख बतलाते हैं कि परिश्रम करना किसे कहते हैं।
-अभी जरूरत है कि और अनेक विद्वान् , इस मार्गपर काम करें। भट्टारकोंके रचे हुए कथाप्रन्य और चरितग्रन्थ बहुत अधिक हैं। उनका भी बारीकीसे अध्ययन किया जाना चाहिए और जिन प्राचीन ग्रन्थोंके आधारसे वे लिखे गये हैं, उनके साथ उनका मिलान किया जाना चाहिए। भट्टारकोंने ऐसी भी बीसों कथायें स्वयं गढ़ी हैं जिनका कोई मूल नहीं है।
अन्तमें मुहद्धर पण्डित जुगल किशोरजीको उनके इस परिश्रमके लिए अनेकशः धन्यवाद देकर मैं अपने इस वक्तव्यको समाप्त करता हूँ। सोमसेन-त्रिवर्णाचारकी यह परीक्षा उन्होंने मेरे ही आग्रह और मेरी ही प्रेरणासे लिखी है, इस लिए मैं अपनेको सौभाग्यशाली समझता हूँ। क्योंकि इससे जैनसमाजका जो मिथ्याभाव हटेगा, उसका एक छोटासा निमित्त मैं भी हूँ। इति ।
__मुलुण्ड ( ठाणा )
।
भाद्रकृष्ण २, सं० १९८५ ।
निवेदकनाथूराम प्रेमी।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com