Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 11
________________ अपेक्षा यह भाग बहुत बड़ा है, और यही सोचकर यह इतने विस्तृत रूपमें लिखा गया है कि अब इस विषयपर और कुछ लिखनेकी आवश्यकता न रहे। भट्टारकी साहित्यके प्रायः सभी अंग प्रत्यंग इसमें अच्छी तरह उघाड़कर दिखला दिये हैं और जैनधर्मको विकृत करनेके लिए भट्टारकोंने जो जो जघन्य और निन्द्य प्रयत्न किये हैं, वे प्रायः सभी इसके द्वारा स्पष्ट हो गये हैं । मुख्तारसाहबने इन लेखोंको, विशेषकरके सोमसेन त्रिवर्णाचारकी परीक्षाको, कितने परिश्रम से लिखा है और यह उनकी कितनी बड़ी तपस्याका फल है, यह बुद्धिमान् पाठक इसके कुछ ही पृष्ठ पढ़कर जान लेंगे। मैं नहीं जानता हूँ कि पिछले कई सौ वर्षोंमें किसी भी जैन विद्वानने कोई इस प्रकारका समालोचक ग्रन्थ इतने परिश्रम से लिखा होगा और यह बात तो विना किसी हिचकिचाहटके कही जा सकती है कि इस प्रकार के परीक्षालेख जैनसाहित्यमें सबसे पहले हैं और इस बात की सूचना देते हैं कि जैनसमाजमें तेरहपन्थद्वारा स्थापित परीक्षाप्रधानताके भाव नष्ट नहीं हो गये हैं। वे अब और भी तेजी के साथ बढ़ेंगे और उनके द्वारा मलिनीकृत जैनशासन फिर अपनी प्राचीन निर्मलताको प्राप्त करने में समर्थ होगा । विद्वज्जनबोधक आदि ग्रन्थोंमें भी भट्टारकोंके साहित्यकी परीक्षा की गई है और उसका खण्डन किया गया है; परन्तु उनके लेखकोंके पास जाँच करनेकी केवल एक ही कसौटी थी कि अमुक विधान वीतराग मार्गके अनुकूल नहीं है, अथवा वह अमुक बड़े आचार्यके मतसे विरुद्ध है और इससे उनका खण्डन बहुत जोरदार न होता था; क्योंकि श्रद्धालु फिर भी कह सकता था कि यह भी तो एक आचार्यका कहा हुआ है, अथवा यह विषय किसी ऐसे पूर्वाचार्य के अनुसार लिखा गया होगा जिसे हम नहीं जानते हैं; परन्तु ग्रन्थ-परीक्षाके लेखक महोदयने एक दूसरी अलब्धपूर्व कसौटी प्राप्त की है जिसकी पहलेके लेखकोंको कल्पना भी नहीं थी और वह यह कि उन्होंने हिन्दुओंके स्मृतिग्रन्थों और दूसरे कर्मकाण्डीय ग्रन्थोंके सैकड़ों श्लोकोंको सामने उपस्थित करके बतला दिया है कि उक्त प्रन्थोंमेंसे चुरा चुरा कर और उन्हें तोड़-मरोड़कर सोमसेन आदिने ये अपने अपने मानमतीके कुनबे ' तैयार किये हैं । जाँच करनेका यह ढंग बिल्कुल नया है और इसने जैनधर्मका तुलनात्मक पद्धति से अध्ययन करनेवालोंके लिए एक नया मार्ग खोल दिया है । ये परीक्षालेख इतनी सावधानीसे और इतने अकाव्य प्रमाणोंके आधारसे लिखे गये हैं कि अभीतक उन लोगोंकी ओरसे जो कि त्रिवर्णाचारादि भट्टारकी साहित्यके परम पुरस्कर्ता और प्रचारक हैं, इनकी एक पंक्तिका भी खण्डन नहीं किया गया है और न अब इसकी आशा ही है । ग्रन्थपरीक्षाके पिछले दो भागोंको प्रकाशित हुए लगभग एक युग (१२ वर्ष ) बीत गया। उस समय एक दो पण्डितमन्योंने इधर उधर घोषणायें की थीं कि हम उनका खण्डन लिखेंगे; परन्तु वे अब तक लिख ही रहे हैं। यह तो असंभव है कि लेखोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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