Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 12
________________ खण्डन लिखा जा सकता और फिर भी पण्डितोंका दलका दल चुपचाप बैठा रहता; परन्तु बात यह है कि इनपर कुछ लिखा ही नहीं जा सकता। थोड़ी बहुत पोल होती, तो वह ढंकी भी जा सकती; परन्तु जहाँ पोल ही पोल है, वहाँ क्या किया जाय ? गरज यह कि यह लेखमाला प्रतिवादियोंके लिए लोहेके चने हैं, यह सब तरहसे सप्रमाण और युक्तियुक्त लिखी गई है। मुझे विश्वास है कि जैनसमाज इस लेखमालाका पूरा पूरा आदर करेगा और इसे पढ़ कर जैनधर्ममें घुसे हुए मिथ्या विश्वासों, शिथिलाचारों और अजैन प्रवृत्तियोंको पहिचाननेकी शक्ति प्राप्त करके वास्तविक धर्मपर आरूढ़ होगा। मेरी समझमें इस लेखमालाको पढ़कर पाठकोंका ध्यान नीचे लिखी हुई बातोंकी ओर आकर्षित होना चाहिए: १-किसी ग्रन्थपर किसी जैनाचार्य या विद्वान्का नाम देखकर ही यह निश्चय न कर लेना चाहिए कि वह जैनग्रन्थ ही है और उसमें जो कुछ लिखा है वह सभी भगवानकी वाणी है। २-भट्टारकोंने जैनधर्मको बहुत ही दूषित किया है। वे स्वयं ही भ्रष्ट नहीं हुए थे, जैनधर्मको भी उन्होंने भ्रष्ट करनेका प्रयत्न किया था। यह प्रायः असंभव है कि जो स्वयं भ्रष्ट हो, वह अपनी भ्रष्टताको शास्त्रोक्त सिद्ध करनेका कोई स्पष्ट या अस्पष्ट प्रयत्न न करे। ३-भट्टारकों के पास विपुल धनसम्पत्ति थी। उसके लोभसे अनेक ब्राह्मण उनके शिष्य बन जाते थे और समय पाकर वे ही भट्टारक बनकर जैनधर्मके शासक पदको प्राप्त कर लेते थे। इसका फल यह होता था कि वे अपने पूर्वके ब्राह्मणत्वके संस्कार ज्ञात और अज्ञात रूपसे जैनधर्ममें प्रविष्ट करनेका प्रयत्न करते थे। उनके साहित्यमें इसी कारण अजैन संस्कारोंका इतना प्राबल्य है कि उसमें वास्तविक जैनधर्म बिल्कुल छुप गया है। ४-सुना गया है कि भट्टारक लोग ब्राह्मणोंको नौकर रखकर उनके द्वारा अपने नामसे ग्रन्थरचना कराते थे। ऐसी दशामें यदि उनके साहित्यमें जैनधर्मकी कलई किया हुआ ब्राह्मण साहित्य ही दिखलाई दे, तो कुछ आश्चर्य न होना चाहिए। ५-इस बातका निश्चय करना कठिन है कि भट्टारकोंके साहित्यका कबसे प्रारंभ हुआ है; इसलिए अब हमें इस दूधसे जलकर छाँछको भी फूंक फूंककर पीना चाहिए। हमें अपनी एक ऐसी विवेककी कसौटी बना लेनी चाहिए जिसपर हम प्रत्येक ग्रन्थको कस सकें। जिस तरह हमें किसी बड़े आचार्यके नामसे भुलावेमें न पड़ना चाहिए, उसी तरह प्राचीनताके कारण भी किसी ग्रन्थपर विश्वास न कर लेना चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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