Book Title: Gommatsara Jivkand
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 7
________________ स्कंधाख्यस्य पंचदशस्यार्थ संग्रह सम्धिसारनामधेयं शास्त्र प्रारभमारणो" भगवरपंचपरमेष्ठिस्तवप्रपामयिका कर्तव्यप्रतिज्ञा विधसे-. (ब) उन्होंने लब्धिसार (रायचन्द्र शास्त्रमाला प्रकाशन) पृष्ठ ६३४ पर प्रशस्ति में लिखा है मुनि भूतवली यतिवृषभ प्रमुख भए तिनिहूँ ने तीन ग्रन्थ कोन सुखकार है। प्रथम धवल पर जो अयपवल सीको महाया प्रसिद्ध नाम धार है । इसमें लिखा है कि भूतबली तथा यतिवषभ ने धवल, जयधबल, महाधवल की रचना की । जबकि धवल, जयधवल को रचना भगवद् वीरसेन स्वामी तथा जिनसेन स्वामी द्वारा हुई है तथा महाधवल भूतबली की रचना है । भूतबली पुष्पदन्त विक्रम की प्रथमशती के प्राचार्य थे तथा यतिवृषभ छठी शती के । जबकि विक्रम की 8 वीं शती में वीरसेनस्वामी ने धवला टीका पूरी की थी। इसके बाद जयधवला रची मई । इस प्रकार भूतबली तथा यतिवृषभ के समय धवल, जयधवल का अस्तित्व भी नहीं था। जीवकाण्ड टीका के अन्य भी कई बिन्दु अप्रान्जल प्ररूपणरूप है। अतः गुरुजी ने धवलादि के प्राधार से इस विस्तृत टीका की रचना की है। प्रस्तुत टीका का समय - दि. २२-१०-७६ ईस्वी, कार्तिक शुक्ला २ वि.सं. २०३६, वीर निर्वाण सं. २५०६ को शुभ मुहूर्त में गुरुजी ने टीका लिवनी प्रारम्भ की थी। दि. १६.१२.७६ ईस्वी पौष वदी १२ को इस टीका का प्रथम अधिकार पूरा हुआ था। इस तरह गति से कार्य करते-करते दि. २६.११.८० ईस्वी को ६६६ गाथा तक की टीका पूर्ण हो गई थी। देह की पूर्णत: अक्षमतावश फिर गुरुजी (मुख्तार सा.) शेष टीका पूरी नहीं कर पाये थे। यह सब उन्हें ज्ञात हो गया था कि अब वे यह कार्य पूरा नहीं कर पायेंगे, इसलिए गुरुजी ने धी विनोदकुमार जी शास्त्री के माध्यम से यह टीका मेरे पास भिजवा दी थी, ताकि मैं इसे पूर्ण कर सकू। पूज्य गुरुजी दि. २८.११.८० की रात्रि को ७-६ बजे ससंयम दिवंगत हुए। हा ! अब वह करणानुयोगप्रभाकर कहाँ ? प्रस्तुत टीका को शैली—मूलग्रन्थ गोम्मटसार जीवकाण्ड प्राकृत गाथाओं में है। उसके नीचे गाथा का मात्र अर्थ दिया गया है। फिर विशेषार्थ द्वारा अर्थ का स्पष्टीकरण किया गया है। पूरे ग्रन्थ में यही पद्धति अपनायी गयी है। टीका में सर्वत्र आगमानुसारी १०८४ शंका-समाधानों द्वारा विषय स्पष्ट किया गया है। ग्रन्थान्तरों के प्रमाण हिन्दी भाषा में देकर नीचे टिप्पण में ग्रन्थनाम, अधिकार पर्व या सर्ग तथा सूत्र या पृष्ठ संख्या अंकित कर दिये गये हैं (देखो पृ. ११०-११ अादि)। कहीं पर ग्रन्थान्तरों के वाक्य मूल प्राकृत या संस्कृत रूप में ही भाषा टीका में उद्धृत कर दिये हैं (देखो पृ. ११२-१३ आदि) तथा वहीं पर ग्रन्थनाम, गाथा व पृष्ठ भी दे दिये हैं, तो कहीं मूल ग्रन्थ,-वाक्य टीका में देकर फिर ग्रन्थ नाम आदि नीचे टिप्परग में उद्धृत किये हैं (यथा [ १३ ]

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