Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
प्रस्तावना
४७
इस सूत्र का अर्थ विचार कर देखना । और भी सुन - तेरे परिणाम स्वरूपानुभव दशा में तो प्रवृत्त नहीं हैं। और विकल्प जानकर गुणस्थानादि का विचार करेगा नहीं, तब तू 'इतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट' होकर अशुभोपयोग में ही प्रवृत्ति करेगा और इससे तेरा बुरा ही होगा। तथा गुणस्थानादि विशेष जानने से जीव की शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र अवस्था का ज्ञान होता है । तब निर्णय करके यथार्थ अंगीकार होता है । तथा जीव का गुण ज्ञान है। विशेष जानने पर आत्मगुण प्रकट होता है, अपना श्रद्धान भी दृढ़ होता है; जैसे केवलज्ञान होने पर सम्यक्त्व परमावगाढ़ नाम पाता है । अतः विशेष जानना चाहिए ।
प्रश्न- आपका कहना तो सत्य है । परन्तु करणानुयोग द्वारा विशेष जानकर भी द्रव्यलिंगी मुनि अध्यात्मश्रद्धान बिना संसारी ही रहता है। और अध्यात्म अनुसार तिर्यंचादि को थोड़े श्रद्धान से भी सम्यक्त्व होता । 'तुषमाष भिन्न' इतने श्रद्धान से ही शिवभूति मुनि मुक्त हुए । अतः हमसे तो विशेष विकल्पों का साधन नहीं होता। हम तो प्रयोजन मात्र अध्यात्म का अभ्यास करेंगे।
समाधान- द्रव्यलिंगी जैसे करणानुयोग से विशेष जानता है, वैसे ही उसे अध्यात्म शास्त्रों का भी ज्ञान होता है । परन्तु मिध्यात्व के उदय से अयथार्थ साधना करता । ऐसी दशा में शास्त्र क्या करे? शास्त्रों में तो परस्पर विरोध है नहीं । सो ही दिखलाते हैं
करणानुयोग के शास्त्रों में और अध्यात्म शास्त्रों में भी रागादि भाव को आत्मा के कर्मनिमित्त से उपजा कहा है । द्रव्यलिंगी उनका कर्ता अपने को मानता है | शरीराश्रित सब शुभाशुभ क्रिया पुद्गलमय कही है। द्रव्यलिंगी अपनी जानकर उनमें त्याग और ग्रहण की बुद्धि करता है । सब ही शुभाशुभ भाव आस्रव-बन्ध कारण कहे हैं। द्रव्यलिंगी शुभ क्रिया को संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण मानता है। शुद्ध भाव को संवर, निर्जरा और मोक्ष का कारण कहा है, द्रव्यलिंगी उसे पहचानता भी नहीं । शुद्धात्म स्वरूप को मोक्ष कहा है, द्रव्यलिंगी को उसका यथार्थ ज्ञान नहीं है। इसमें शास्त्रों का क्या दोष है?
तुमने कहा- मुझसे विकल्पसाधन नहीं होता, सो जितना बने उतना करो। पापकार्य में तो तुम प्रवीण हो और इसके अभ्यास के लिए कहते हो, मेरे में बुद्धि नहीं है, यह तो पापी का लक्षण है ।
( इस प्रकार स्वाध्याय प्रेमी जनों को इस करणानुयोग - विषयक शास्त्र में प्रवृत्त होने की प्रेरणा करने के पश्चात् पीठिका में 'गोम्मटसार' का विषय - परिचय दिया है। उसके पश्चात् गणित का ज्ञान कराया है, उसे यहाँ देते हैं ।)
आवश्यक गणित
इस करणानुयोग रूप शास्त्र के अभ्यास के लिए गणित का ज्ञान आवश्यक है। इसलिए गणित सम्बन्धी ग्रन्थों का अभ्यास करना चाहिए। यदि वह सम्भव न हो, तो परिकर्माष्टक तो अवश्य जानना चाहिए । अतः यहाँ प्रयोजन मात्र परिकर्माष्टक का वर्णन करते हैं ।
संकलन, व्यवकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल ये आठ नाम हैं। इन्हें ही परिकर्माष्टक कहते हैं। ये लौकिक गणित में भी प्रचलित हैं और अलौकिक गणित में भी प्रचलित हैं। लौकिक गणित तो प्रसिद्ध ही है। अलौकिक गणित जघन्य संख्यातादि अथवा पल्यादि का कथन आगे जीवसमासाधिकार पूर्ण होने के पश्चात् इस ग्रन्थ में किया है। यहाँ संकलनादि का स्वरूप कहते हैं
किसी राशि को किसी राशि में जोड़ना संकलन है। जैसे सात में पाँच जोड़ने से बारह हुए । अथवा पुद्गलराशि में जीवादि का प्रमाण जोड़ने से सब द्रव्यों का प्रमाण होता है । तथा किसी राशि में से किसी राशि को घटाने का नाम व्यवकलन है। जैसे बारह में से पाँच घटाने पर सात रहते हैं । अथवा संसारी जीवराशि में से त्रसराशि घटाने पर स्थावर जीवों का प्रमाण होता है । किसी राशि को किसी राशि से गुणा करने का नाम गुणकार है; जैसे पाँच को चार से गुणा करने पर बीस होते हैं । अथवा जीवराशि को अनन्त से
गुणा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org