Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
View full book text
________________
प्रस्तावना
४५
1
है और कहीं विशेष कथन है कहीं सुगम है, कहीं कठिन है। यदि सबका अभ्यास बन सके तो, उत्तम है और जो न बने तो अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा बने तैसा अभ्यास करो, अपने उपाय में आलस्य मत करो। और जो यह कहा जाता है कि प्रथमानुयोग सम्बन्धी कथादि सुनने से जीव पाप से डरते हैं और धर्मानुरागी बनते हैं । सो वहाँ तो दोनों कार्य मन्द रूप से होते हैं? किन्तु यहाँ पाप-पुण्य के कारण कार्य आदि का विशेष ज्ञान होने से दोनों कार्य दृढ़ता से होते हैं । अतः इस शास्त्र का अभ्यास करना चाहिए ।
चरणानुयोग के पक्षपाती कहते हैं कि इस शास्त्र में कहा जीव, कर्म का स्वरूप तो जैसा है, वैसा ही है। उसके जानने से क्या लाभ? यदि हिंसादि को त्याग कर व्रत पालें, उपवासादि तप करें अथवा अरहन्त आदि की पूजा - भक्ति करें, दान दें, विषयादि से उदासीन हों, तो आत्महित हो ।
उनको कहते हैं-
1
हे स्थूलबुद्धिः व्रतादि शुभ कार्य तो करने योग्य ही हैं, परन्तु सम्यक्त्व के बिना वे ऐसे हैं, जैसे अंक बिना बिन्दी । और जीवादि को जाने बिना सम्यक्त्व का होना ऐसा जैसा बाँझ के पुत्र अतः जीवादि को जानने के लिए इस शास्त्र का अभ्यास अवश्य करना चाहिए तथा जैसे प्रतादि शुभ कार्य हैं और उनसे पुण्यबन्ध होता है, उसी प्रकार जीवादि के स्वरूप को जानने रूप ज्ञानाभ्यास भी प्रधान शुभ कार्य है और उससे सातिशय पुण्य का बन्ध होता है तथा व्रतादिक में भी ज्ञानाभ्यास की ही प्रधानता है; क्योंकि जो जीव प्रथम जीवसमास आदि जीवादि के विशेष जानता है, पीछे यथार्थ ज्ञान के द्वारा हिंसादि को त्याग व्रत धारण करता है, वही व्रती है। जो जीवादि के विशेष जाने बिना किसी प्रकार हिंसादि के त्यागमात्र से अपने को व्रती मानता है, वह व्रती नहीं है । अतः व्रतपालन में भी ज्ञानाभ्यास की ही प्रधानता है। तथा दो प्रकार का तप कहा है- बहिरंग और अन्तरंग । जिससे शरीर का दमन होता है, वह बहिरंग तप है और जिससे मन का दमन होता है, वह अन्तरंग तप है। इनमें बहिरंग तप से अन्तरंग तप उत्कृष्ट है। सो उपवासादि तो बहिरंग तप है और ज्ञानाभ्यास अन्तरंग तप है । सिद्धान्त में भी छह प्रकार के अन्तरंग तपों में चौथा स्वाध्यायनामा तप कहा है। उससे उत्कृष्ट, व्युत्सर्ग और ध्यान ही हैं। अतः तप करने में भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है।
तथा जीवादि के विशेष रूप गुणस्थानादि का स्वरूप जानने पर ही अरहन्त आदि का स्वरूप ठीक रीति से जाना जाता है तथा अपनी अवस्था को पहचानता है। ऐसा होने पर जो तीव्र अन्तरंग भक्ति प्रकट होती है, वही कार्यकारी है जो कुलक्रमादि से भक्ति होती है, वह किंचित्मात्र ही फल की दाता है अतः भक्ति में भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है।
/
।
तथा दान चार प्रकार का है। उनमें से आहारदान, औषधदान और अभयदान तो तत्काल के भूख, रोग और मरण आदि के दुःख को दूर करते हैं किन्तु ज्ञानदान अनन्तभव सम्बन्धी दुःख को दूर करने का कारण है । अतः ज्ञानदान उत्कृष्ट है । यदि अपने को ज्ञानाभ्यास हो, तो अपना भी भला करता है और अन्य जीवों को ज्ञानदान देता है । ज्ञानाभ्यास के बिना ज्ञानदान कैसे हो सकता है? अतः दान में भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान
है ।
अनादिकाल से सब जीव संसार में रहते हुए कर्मों को अपना मानते हैं । कोई जीव जीव और कर्म का यथार्थ ज्ञान होने पर कर्मों से उदासीन हो, उन्हें पर जानने लगता है और उनसे अपना सम्बन्ध छुड़ाना चाहता है । ऐसी उदासीनता ज्ञानाभ्यास से ही होती है और वही कार्यकारी है। ज्ञान के बिना जो उदासीनता होती है, वह तो पुण्यफल की दाता है। उससे मोक्ष की सिद्धि नहीं होती। इसी प्रकार अन्य शुभ कार्यों में भी ज्ञानाभ्यास ही प्रधान है। अतः शास्त्राध्ययन से जीव और कर्म का स्वरूप जानकर अपने स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। प्रश्न- कोई जीव शास्त्र अध्ययन तो बहुत करता है, किन्तु विषयादि का त्याग नहीं करता। उसका शास्त्राध्ययन कार्यकारी है या नहीं? यदि है, तो महान् पुरुष विषयादि का त्याग क्यों करते हैं? यदि नहीं है, तो ज्ञानाभ्यास की महिमा कहाँ रही?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org