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विषय-त्याग नहींरस-विसर्जन मार्ग है ... 247
स्थितप्रज्ञ के अन्य तीन लक्षण-दुख में अनुद्विग्न, सुख की जिसे चाह नहीं और राग, भय, क्रोध जिसमें न हों / जहां सुख की चाह-वहां दुख की पीड़ा / दुख आता है-सुख की आड़ में / दुख सुख की ही छाया है / सुख भी उद्विग्नता है-उत्तेजना है / मात्रा से ज्यादा सुख भी मार डालता है । सुख और दुख एक-दूसरे में बदले जा सकते हैं / दुख का भी अभ्यास सुख बन जाता है / क्रोध और भय छोड़ने से समाधि नहीं आती-समाधि आने से क्रोध और भय छूट जाते हैं / क्रोध और भय से लड़ने वाला और गहरे क्रोध और भय में उतर जाता है / अभय और निर्भय में फर्क / कृष्ण कारण नहीं गिना रहे हैं—परिणाम बता रहे हैं / चित्त का स्वास्थ्य समाधि है / दबाने के बदले क्रोध को उभार कर देखना / क्या स्थितप्रज्ञ को कष्टों का पता नहीं चलता है? / कष्ट तथ्य है और दुख मन की व्याख्या / स्थितप्रज्ञ अत्यंत संवेदनशील है / उसकी चेतना हमेशा अव्यस्त है / स्थितप्रज्ञ पैर का कांटा निकालेगा–लेकिन उद्विग्न नहीं होगा / अकष्ट तथ्य है-सुख मन की व्याख्या है / उसकी चेतना सदा अस्पर्शित बनी रहती है / विषयों से अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लेना / इंद्रियों के दो हिस्से-इंद्रिय का यंत्र और उसके पीछे वासना / आंख का यंत्र और देखने की वासना / इंद्रियों की सूक्ष्म वासनाओं को सिकोड़ लेने पर इंद्रियां व्यवहार की माध्यम मात्र रह जाती हैं | वासनाग्रस्त आंख अंधी हो जाती है | बहिर इंद्रियां तो द्वार हैं-जगत से संपर्क के लिए / आंखें बंद कर लेना सरल-लेकिन देखने का रस छोड़ना बड़ा कठिन / सपनों में इंद्रियों की वासनाओं का सक्रिय हो जाना / होश मात्र से, देखने मात्र से-अंतर-इंद्रियों का सिकुड़ना और बाहर की इंद्रियों का शांत हो जाना / भोगी और त्यागी–दोनों देह-केंद्रित हैं। इंद्रिय और शरीरवादी–चार्वाक दर्शन / संप्रदाय अल्पमत वालों के ही बनते हैं / सारी दुनिया चार्वाक के साथ है, इसलिए चार्वाक का कोई संप्रदाय नहीं है / हमारे सभी अनुभव ऐंद्रिक हैं / शरीर के ऊपर के किसी भी तत्व का हमें पता नहीं है / विषय बाहर है, रस भीतर है, इंद्रियां बीच में सेतु हैं | तपस्वी विषयों को तो छोड़ देता है, लेकिन उसके रस को नहीं छोड़ पाता / बाह्य विषय छोड़ दें और रस भीतर बना रहे, तो परिणाम होगा-विक्षिप्तता / रस छूट जाने पर विषय-वस्तुएं मात्र रह जाती हैं | विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है / कृष्ण जहां हैं-वहां पूरे हैं / इंद्रियां हैं आदतों का संग्रह-आपका सहयोग-आपका तादात्म्य उनका बल है / हम संस्कार से जीते हैं-चेतना से नहीं / आदतों की गुलामी।
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मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां ... 267
सूक्ष्मतम से प्रारंभ-स्थूलतम पर अंत / वासना का बीज-विचार के रूप में / सुंदर स्त्री या सुंदर पुरुष को सिर्फ देखा-या भीतर कोई चाह भी उठी? मन के किसी कोने में चाह का उठना / तथ्य के वक्तव्य में भी छिपी हुई चाह / चीजें न सुंदर हैं, न असुंदर / सुंदर-असुंदर-हमारी व्याख्याएं / वासना का प्रारंभ-पसंद, नापसंद से / बीज से मुक्त हुआ जा सकता है-वृक्ष से नहीं / बीज फेंके जा सकते हैं, पर वृक्षों को काटना
और उखाड़ना पड़ता है / जड़ें बहुत गहरे अचेतन में छिपी / काम-चिंतन अर्थात काल्पनिक संग / काम में बाधा पड़ने पर क्रोध का जन्म / प्रेमी-प्रेमिका का दो होना भी भीतरी बाधा है / चाह में छोटी-छोटी अड़चनें बाधा बन जाती हैं | असल में दो व्यक्तियों का साथ रहना ही उपद्रव है / स्थितप्रज्ञ को काम नहीं इसलिए उसे क्रोध नहीं होता / सबकी अपनी कामनाएं हैं-उनकी टकराहट अपरिहार्य है / एक-एक चाह पर करोड़-करोड़ चाहों का कटाव है / वासना की रग कटने पर क्रोध का खुन / क्रोध उद्विग्न, उत्तप्त ऊर्जा है / जो नहीं मिलता, उसके प्रति मोह होता है / अधिक क्रोध-अधिक मोह / विवाह मोह को मार डालता है / ढंकी स्त्री मोह पैदा करती है / योरोप और अमेरिका में स्त्री उघड़ी-मोह क्षीण हुआ / जहां