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क्या द्रौपदी नग्न की गई? अनूठी स्त्री-द्रौपदी / द्रौपदी में-सीता, क्लियोपेट्रा और गार्गी एक साथ / महाभारत के केंद्र में द्रौपदी, और रामायण के केंद्र में सीता / द्रौपदी-सीता से भी ज्यादा अनूठी / कर्म का संकल्प और फल की चिंता छोड़ने का साहस / फल-कर्म की छाया की तरह आता है / कर्म हमारा-और फल परमात्मा का प्रसाद है / फलाकांक्षारहित होते ही सारी जीवन-ऊर्जा सहयोगी / समता, अचुनाव, संतुलन ही योग है। मूछित समता नहीं-जीवंत समता चाहिए / खतरे में जागरण की जरूरत / युद्ध का खतरा हमें जगाता है इसलिए युद्ध में रस / निर्द्वद्वता अचुनाव में खिलती है । द्वंद्व के प्रति जागरण और समता में प्रवेश / बुद्धि के दो उपयोग-बाहर जाने के लिए या भीतर आने के लिए / अर्जुन बुद्धि का उपयोग कर रहा है-बहिर्जगत के संबंध में / अधिकतम पंद्रह प्रतिशत बुद्धि का उपयोग / बाहर की दुनिया में अधिक बुद्धि की जरूरत नहीं है / स्वयं को जानने के लिए सौ प्रतिशत बुद्धि का उपयोग जरूरी / बुद्धियोग–अर्थात अंतर्यात्रा के लिए बुद्धि का उपयोग / कर्म की कुशलता ही योग है / वस्तुगत ज्ञान और आत्मगत ज्ञान में फर्क / ज्ञान और परिचय की भिन्नता / ज्ञान अर्थात स्वयं को जानना-ज्ञाता को जानना / विज्ञान-ज्ञान नहीं-परिचय है / दूसरे का केवल परिचय संभव है / सांख्य अर्थात स्वयं को जानना-परम ज्ञान है / कृष्ण का योगी-कर्म कुशल / हमारा योगी-कर्म से भागने वाला / अर्जुन भी कर्म से भागना चाहता है / शांत, संतुलित, जाग गए व्यक्ति के सभी कर्म कुशलता-युक्त / अकुशलता आती है-भीतर की अशांति से / जन्म-मृत्यु का बंधन-मान्यता है, भ्रम है-सत्य नहीं / मृत्यु एक अनुमान है | क्या आपने अपना जन्म देखा है? अपनी मृत्यु देखी है? एक बार जागकर जन्म-मृत्यु को देख लेने पर उनका भ्रम टूट जाता है / सांख्य-बुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति परमपद को उपलब्ध / परमपद भीतर है।
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मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता ... 229
मोहरूपी अंधकार से घिरी चेतना / अंधकार के लक्षण दिखाई न पड़ना, मार्ग न सझना, चीजों से टकराना / मोह का आध्यात्मिक अंधापन / मोह ही जीवन का दुख है / मोह का सम्मोहन / मैं का फैलाव / अधिक मैं-अधिक अंधकार / मोह-मुक्ति से वैराग्य का जन्म / कृष्ण का वैराग्य-राग की विपरीतता नहीं / वैराग्य अर्थात जहां न राग रहा—न विराग / वैराग्य अर्थात सभी द्वंद्वों के पार / मोह का कारण भीतर है-बाहर की वस्तुओं में नहीं / विचार भी कृत्य है, भाव भी कृत्य है / होना कृत्य नहीं है | जहां-जहां मैं-वहां-वहां संसार / भीतर से कंपित व्यक्ति का बाहर से दृढ़ता दिखाना / भीतर हीनता, तो बाहर-श्रेष्ठता का दिखावा / कृष्ण की दृढ़ता-एडलर की दृढ़ता से सर्वथा भिन्न / द्वंद्व और चुनाव से मुक्त चित्त सुदृढ़ हो जाता है / प्रज्ञा का थिर हो जाना क्या है? / स्थितप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता, कैसे बैठता, कैसे चलता है? / यह अर्जुन का पहला गहरा
और प्रामाणिक प्रश्न है / अर्जुन के पिछले सारे प्रश्न—अपने अहंकार और ज्ञान की पुष्टि के लिए ही थे / अर्जुन ने पहली बार अपने को अज्ञानी की तरह स्वीकारा है / पहली विनम्र जिज्ञासा / जाग्रत व्यक्ति के जीवन का ऊपरी ढांचा क्या होगा? / क्या उसका जीवन अनुशासित हो जाएगा? सहज स्फूर्त जीवन / ढांचे के अभाव में भी एक आंतरिक अनुशासन / बुद्ध और महावीर का एक ही धर्मशाला में ठहरना, परंतु मिलना न हो सका / बुद्ध
और महावीर का यह आग्रह कि केवल वे ही ठीक हैं और दूसरा बिलकुल गलत है-अज्ञानियों की सहायता के लिए / बुद्ध और महावीर जानते हैं कि सब ठीक है / ज्ञानियों को करुणावश अनेक असत्य बोलने पड़ते हैं | समाधिस्थ व्यक्ति की प्रज्ञा तो थिर होती है, लेकिन उसके जीवन का ढांचा प्रतिपल नया होता है / कृष्ण क्षण-क्षण जीते हैं / स्थितप्रज्ञ का पहला लक्षण-स्वयं से संतुष्ट, स्वयं से तृप्त / हम सदा स्वयं से ऊबे हुए हैं / स्वयं से असंतुष्ट व्यक्ति को कहीं भी संतोष नहीं / दूसरे से सुख पाने की आशा चित्त को कंपाती ही रहेगी / आदमी की अनंत सामर्थ्य-धोखा खाने की, धोखा देने की / स्वयं में सुख पाने पर प्रज्ञा थिर।