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अर्जुन का जीवन शिखरयुद्ध के ही माध्यम से ... 167
इहलोक और परलोक / परलोक मृत्यु के बाद नहीं-अभी और यहीं है / परलोक में समय और स्थान का खो जाना / परलोक अर्थात सूक्ष्म अंतर्जगत / स्वर्ग अर्थात अंतर्संगीत, नरक अर्थात अंतर्विसंगीत / स्वधर्म के विपरीत जाना सदा सरल है क्योंकि वह उतार की यात्रा है / स्वधर्म को पाना चढ़ाव है, ऊर्ध्वगमन है। अर्जुन का शिखर-अनुभव (पीक एक्सपीरिएंस) युद्ध में ही घटित / महाभारत जैसा विराट युद्ध ही अवसर बने अर्जुन के लिए / जो भीतर है, वही बाहर फैल जाता है-स्वर्ग तो स्वर्ग, नरक तो नरक / भीतर स्वर्ग बनाते ही-बाहर के सब नरक विलीन / अर्जुन युद्ध से भागकर-शिखर अनुभव से चूक जाएगा / भिन्न-भिन्न मार्गों से परमात्मा तक पहुंचने के कारण बुद्ध, महावीर, रमण आदि की भीतरी अनुभूति में बड़ा फर्क क्यों हो जाता है? अनुभूति में नहीं-अभिव्यक्ति में भेद / अभिव्यक्ति का माध्यम व्यक्तित्व है / प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व अलग / बुद्ध का अनत्ता, महावीर की आत्मा, शंकर का ब्रह्म और मीरा का नृत्य / क्या अच्छा, क्या बुरा? क्या पाप, क्या पुण्य? पाप और पुण्य कृत्य नहीं भाव हैं / कृत्य नहीं-कर्ता महत्वपूर्ण है / कृत्य पर आधारित नीति बहुत बचकानी है / द्वंद्व के पार उठ गए व्यक्ति से पाप असंभव / क्रोध स्वाभाविक है, तो क्या युद्ध भी स्वाभाविकता है? / युद्ध-मुक्ति कैसे संभव? / चेतना का तल बदलने पर स्वाभाविकता भिन्न-भिन्न / क्रोध है-मूर्छा के कारण / काम, क्रोध, लोभ स्वभाव है-प्रारंभ की तरह, अंत की तरह नहीं / पश्चिम के मनोविज्ञान ने काम-क्रोध को स्वाभाविक बताकर उच्छृखलता को बढ़ावा दिया है-व्यक्ति को दायित्व से मुक्त किया है / रूपांतरण की जिम्मेवारी से एक चिंता का जन्म / मार्क्स ने कहा-समाज जिम्मेवार है / फ्रायड ने कहा-प्रकृति जिम्मेवार है / मार्क्स और फ्रायड की धारणाएं पश्चिम में पतन का कारण / अधूरे सच-झूठ से भी ज्यादा खतरनाक / क्रोध स्वभाव है, लेकिन क्रोध से मुक्त होने की आकांक्षा भी स्वभाव है / पशुता यदि स्वभाव है, तो धर्म का कोई मूल्य नहीं / स्वभाव की आड़ में पशुता को बचाने की खतरनाक चेष्टा / वृक्षों में जड़े हैं, ताकि फूल खिल सकें / निम्न बिना श्रेष्ठ के हो सकता है, लेकिन श्रेष्ठ बिना निम्न के नहीं हो सकता / पशु से प्रारंभ और परमात्मा पर अंत।
निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया ... 183
अनंत हैं मार्ग-परमात्मा तक पहुंचने के / ज्ञानयोग की निष्ठा है कि करना कुछ नहीं है-जानना पर्याप्त है / परमात्मा को खोया नहीं है सिर्फ भल गए हैं । केवल पनमरण, केवल प्रत्यभिज्ञा चाहिए / सांख्य और झेन के बीच साम्य है. परंत झेन तो ब्रह्म की कोई बात नहीं करता? पश्चिम के दार्शनिक निरीश्वरवादी होने के कारण ही क्या सांख्य की चर्चा करते हैं? झेन और सांख्य दोनों में ज्ञान की प्रधानता है / खोजा–कि भटके | रुको-और जान लो / प्रयास से नहीं-अप्रयास से / तुम वही हो-जो तुम खोज रहे हो / स्वयं को पाने के लिए श्रम की कोई जरूरत नहीं / ध्यान अर्थात होना, कुछ न करना / डूइंग नहीं-बीइंग, नोइंग / बुद्धिज्म-झेन-शुद्ध ज्ञानयोग है / करना, रिचुअल्स, क्रियाकांड-सब अशुद्धियां / ज्ञानयोग-सांख्य–आम जनता के काम का नहीं / सांख्य और झेन निरीश्वरवादी हैं, लेकिन ब्रह्म या अस्तित्व को स्वीकारते हैं / ईश्वर से भी पहले हैं—ब्रह्म-अस्तित्व / ईश्वर और ब्रह्म में फर्क / ईश्वर है-मन से देखा गया ब्रह्म / निर्गुण, निराकार, अव्यक्त ब्रह्म तक पहुंचने के लिए सगुण ईश्वर की धारणा का समझौता / सांख्य शुद्धतम ज्ञान है और योग-शुद्धतम क्रिया / सत्य की खोज के दो मौलिक विभाजन-सांख्य और योग/ निष्काम कर्मयोग का कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता / सकाम कर्म के सभी कदम व्यर्थ जाते हैं | अपेक्षा की अंतहीन लकीर के सामने सभी सफलताएं