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आयु/काल . अरे भाई ! संभल, मृत्यु तेरे द्वार पर ही खड़ी है (१३८)। हे चेतन ! तेरी आयु अब थोड़ी हो रही है, अब तो संभल { २३४)। __गर्व - हे प्राणी ! यहाँ जो भी पैदा हुआ है उनमें कोई भी मृत्यु के चंगुल से बच नहीं सका इसलिए तू गर्च मत कर ( २५२), हे प्राणी ! तुम क्या देखकर गर्व करते हो जब कि यहाँ पर कुछ भी स्थिर नहीं है (२५५) ।
परनिन्दा - अरे प्राणी ! परनिन्दा मत कर ( २५०) ।
लोभ अरे जिय ! यह लोभ सदा दुःखदायी है (२९७), हे प्राणी ! पन में सदा सन्तोष रखो, इसके समान कोई दूसरा धन नहीं है ( २९८) ।
सुख-दुःख - हे भाई ! तुम अपनी व्यथा किसे कहते हो ! ये सुख दुःख सब तुम्हारे ही उपजाये हुए हैं (२६७) । अरे भाई ! जैसे धूप और छाया घटतीबढ़ती रहती है वैसे ही सुख-दुःख की स्थितिधा ती बढ़ती रहता है (६६.६ :
परिग्रह - अरे प्राणी ! ये परिग्रह, ये सम्पदा सदैव दुःखकारी है ( २६६) । विविध
होली - कवि ने धार्मिक रूपक बाँधकर होली के त्यौहार का वर्णन चित्रण किया है। कवि कहते हैं कि अब असन्त ऋतु आगई. सब ज्ञानीजन होली खेलते हैं जिसमें धर्म की गुलाल उड़ती है और समता के रंग घोले जाते हैं ( ३०५ ) । वेतन/जीव क्षमारूपी भावभूमि पर करुणारूपी केसर से होली खेलते हैं (३०८) 1
तपस्यारत नेमीश्वर भी होली खेल रहे हैं, वे महाव्रतरूपी वस्त्र धारणकर आध्यात्मिक होली खेल रहे हैं (३१०) । कवि ने 'चेतन/जीत्र' और 'सुमति' को परस्पर 'प्रिय' के रूप में चित्रित करते हुए उनके 'होली' सम्बन्धी भावों को प्रकट करते हुए लिखा है - सुमति कह रही है कि मेरे पिया (चेतन) घर में नहीं हैं, मैं किस के साथ होलो खेलूँ (३११) ? नगर में होली हो रही है। पर मेरे 'प्रिय' चेतन घर में नहीं हैं अर्थात् वे आत्मस्थ नहीं हैं. वे जगत के बाह्य रूप में उलझे हुए हैं. इसलिए मैं होली कैसे खेलें (३०९) ? जब चेतनाजीव की रुचि 'स्व' की ओर होती है तब उसकी प्रिया कहती है - मेरे प्रिय चेतन घर लौट आये हैं अब मैं उनसे होली खेलूँगो (३१२) (३१३) (३०७) ।
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