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करुणाभाव .. हे जीव ! अपने अन्तर में भी करुणा रखो और बाहर भी करुणा रखो (२५२), हे मनुष्य ! नरभव का लाभ उठा, उर में दया धारण कर (२३५ है भाई : "कर मानवेशों को अपने समान समझ (३०२) (२९६)। पर पीड़ा पाप है, यही धर्म का सार है ( ३०१) (३०२) । साधुजन कहते हैं कि करुणा करने से सुख मिलता है (३०३) । ज्ञानी जीव सदा दया भाव का पालन करते हैं (२७५) ।
सत्संगति - अरे नर ! मनुष्य जन्म का लाभ उठा, सत्संगति में रह (२६४), सबको अच्छी संगति मिले इसलिए स्वयं भला बन और सबका भला कर (२९५) । अरे भाई ! संतजनों की संगति कर (२८२) ।
सम्यक्त्व - जो सम्यक्ज्ञान से युक्त हैं, सुख-दुःख में समता रखते हैं वे ही संसार में सुख पाते हैं (११३) । हे प्राणी ! मिथ्या भाव छोड़ो, सम्यक आचार को पालो (२५३)।
आध्यात्मिक उपदेश के साथ-साथ कवि ने व्यवहार-जगत के लिए भी कहा
स्वजन-स्नेह - हे भाई ! अपने स्वजनों से स्नेह रखो, संसार में और सबकुछ मिल सकते हैं, पत्नी पुत्र फिर मिल सकते हैं पर सहोदर/माँ -लाया भाई मिलना बहुत कठिन है (२९३)।
साधर्मी जन सैली सैली स्हैली:साधमीजनों का संगम सदा जयवन्त हो (३०४)।
तीर्थ-वन्दना कवि साधर्मीजनों को तीर्थयात्रा के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं .. हे भव्य ! चलो बनारस में चलकर पूजा करें (५५), हे भत्र्य ! तुम हस्तिनापुर की वन्दना हेतु जाओ (३२३), वहाँ श्री शान्तिनाथ, श्री कुन्थुनाथ और श्री अरहनाथ - इन तीनों तीर्थंकरों के गर्भ जन्म व तप . ये तीनों कल्याणक सम्पत्र हुए हैं (२६) । हे भव्य ! मनुष्यों और देवों के लिए भी सुखदाई गिरनार पर्वत, जहाँ पर तीर्थकर नेमिनाथ का मोक्ष कल्याणक हुआ है. चलो (३२१) । हे भत्र्य ! पावापुर चलो जहाँ पर तीर्थंकर महावीर का मोक्ष कल्याणक हुआ है और गौतम गणधर को केवलज्ञान हुआ है (६२) (६३): ।
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