Book Title: Dyanat Bhajan Saurabh
Author(s): Tarachandra Jain
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajkot

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Page 14
________________ जप (२६४ ) | जब यह देह शिथिल होवे उससे पूर्व ही तुम तत्त्व- चिन्तन करलो, करलो, तप साधन करलो (२५१) क्योंकि जिसने आत्मा को नहीं जाना उसने मनुष्य भत्र पानी में बहा दिया. (१३.४) यदि आत्मा का हित नहीं किया तो इस नरभव का फल नहीं मिलेगा (१०८) । जिनके हृदय में प्रभु नाम का स्मरण नहीं उसका नरभव पाना व्यर्थ हैं ( १८० ) । आध्यात्मिक जब प्राणी को अपनी आत्मा के प्रति अपने स्वभाव के प्रति रुचि होने लगती हैं तो उसका विचार चिन्तन- क्रिया सभी कुछ बदल जाते हैं. और उसके साथ ही उसके अनुभव भी बदल जाते हैं। उसके भावों का चित्रण करते हुए कवि ने कहा है अब मैं जाना आतमराम ( ६८ ) ; हाँ मैंने जाना कि यह आत्मा पुद्गल धर्म-अधर्म-आकाश-काल इन जड़ द्रव्यों से भिन्न है (८०) । आत्मा कान के समान निर्मल हैं (८१) । आत्मा का रूप अनुपम हैं, उसकी उपमा के लिए तीनों लोक में कोई अन्य द्रव्य नहीं हैं (८३ ) । मैं शुद्ध, ज्ञानमय, निर्मल स्वभाववाला हूँ (१३५) । मुझमें और भगवान में स्वरूप की दृष्टि से किंचित भी अन्तर नहीं है (८४ ) मैंने समझ लिया है कि अन्य सब जीव भी मेरे ही समान हैं ( ६९ ) । - - अब मुझे यह समझ में आ गया है कि जगत् में जो कुछ दिखाई दे रहा है वह सब पुद्गल है इसलिए अब हमारी लगन आत्मा से लग रही हैं (१५५ ) । अब मैंने जान लिया है कि मैं चेतन द्रव्य हूँ और यह पुद्गल द्रव्य अचेतन हैं (१२३) । मैंने समझ लिया है कि ये देहादि परद्रव्य मेरे नहीं हैं (७१) । यह पुद्गल देह मेरी नहीं है (८७) (८८) (२४० ) | यह देह विनाशी हैं और में अविनाशी हूँ ( ७० ) । हमारा कार्य दभी सफल होगा जब हम संशय विभ्रम मोह को त्यागकर स्व और घर को जानेंगे (२७३ ) | 1 अब हमने अपने स्वभाव को जान लिया है इसलिए अब हमारे ये दिन अच्छे बीत रहे हैं (११९) । अब मुझे अपनी आत्मा से नेह है, प्रीति हैं (१४०) (१४१ ) । अब हमें अपनी आत्मा को अपने वेतन रूप को निहारना ही प्रिय है (१४४), अब आत्मा ही मेरा प्रिय है, मेरा महबूब हैं (८२ ) 1 इस प्रकार आत्मस्वरूप को जानने पर ही सुख मिला है ( ११६) । आत्मा का अनुभव ही सार है (७७) । ( xiv)

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