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जब सब प्रकार की चाह पिट जाती है तब जिनपद मिलता है ( १७६) हे प्राणी ! तुम तो चतुर हो, फिर क्यों नहीं समझते ( १०१ ) ? अरे भैया ! आत्मा की जान, जिसके कारण पाँच इन्द्रियों का गाँव यह देह सक्रिय रहती है (१३१) |
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हे मन ! तू राग भाव को दूर कर, क्योंकि इसके कारण ही कर्मों का आव होता है (१३३) । हे जिय ! कर्मों का नाश करने से ज्ञान प्रकट होता है (३०६ ) । अपने कर्मों की वृद्धि की रेखा को वे ही रोक सकते हैं जो अपने आप में अपने को धारण करते हैं (१५० ) ।
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के समान पर जब प्राणी को यह समझ आता है कि मैं अब तक अपनी ही गलती अपने ही मिथ्याज्ञान आदि के कारण दु:ख पाता रहा हूँ तब वह स्वयं की भर्त्सना करता है, स्वयं को समझाता हैं ओह ! हमने कभी भी अपनी आत्मा का चिन्तन नहीं किया तो हमें सुख कैसे हो सकता है (१५९) ? हमें मोक्षरूपी सुख कैसे मिल सकता है क्योंकि जो मोक्षसुख के साधक कारण हैं हममें उनमें से एक भी नहीं है (१५६ ) ? इसीलिए तो मैं इस संसाररूपी वन में घूम रहा हूँ, यह नरभव पाकर भी मैंने बहुत जीवों को सताया, इन्द्रिय भोगों में रत रहा, मिथ्यामतों में विश्वास किया ( २३० ) । ओह ! मनुष्य भव के हमारे ये दिन व्यर्थ ही गये ! न हमने जप किया न तप किया बल्कि पाप ही पाप उपार्जित किये हैं (२७४) । मैं दान- तप कुछ भी नहीं किया इसलिए मैं भवसागर से कैसे पार हो सकता हूँ. (२०८ ) ? जब तक विषय-भोगों में, कषायों में लीन रहेंगे तब तक सुख कैसे हो सकता है ( १५९) ? अरे मन ! तू कहने को वीर बनता है पर कार्य करने में कच्चा है (९४) । जो आत्मा को नहीं जानता है वह अनेक जन्म भ्रारण करता है. वह संसार महावन में भटकता रहता है (१२२) (१२९) ।
अवसर की / नरभव की दुर्लभता अरे प्राणी ! चारों गतियों में यह नरभव हो उत्तम हैं, इस तरभव के बिना मुक्ति संभव नहीं (१०३) । हे मनुष्य ! यह नरभव पाकर तू इसे व्यर्थ क्यों कर रहा है (१०२) (१६६ ) ? हे प्राणो ! मनुष्य भव बार-बार नहीं मिलता इसलिए तू इसे विषयों में मत गँवा (२४७)। अरे ! तूने भाग्योदय से यह नर देह पाई हैं, अब इसे व्यर्थ मत खो ( २०९ ) : हे प्राणी ! तेरे मनुष्य पर्याय के ये दिन बहुत अनमोल हैं, तू इनका लाभ अवश्य उठा ले
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