Book Title: Dharmshiksha Prakaranam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 13
________________ प्रस्तावना - VI क्रमशः विचरण करते हुए जिनवल्लभगणि चित्तौड़ आये। उनका वैदग्ध्य तथा खरतर/तीक्ष्ण एवं कठोर आचार-व्यवहार देखकर वहाँ के प्रमुख-प्रमुख श्रेष्ठि भी इनके उपासक बन गये। आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रतिपादित वसतिवास, सुविहित मार्ग, विधि पक्ष का कोई भी जिन मंदिर नहीं था। धार्मिक अनुष्ठानों में भी बाधा पड़ती थी। अतएव जिनवल्लभगणि के उपदेश से तत्रस्थ श्रावकों ने चित्तौड़ में भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर के दो नवीन विधि चैत्य बनवाए और इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा भी इन्हीं के हाथों से सम्पन्न करवाई। आचार्य जिनेश्वर ने चैत्यवास का विरोध करने में जिस निषेधात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया था और जो ज्योति जलाई थी, उस ज्योति को परम ज्योति का रूप देते हुए निषेधात्मक प्रवृत्ति का अवलम्बन लेकर भी विधिमार्ग अर्थात् करणीय मार्ग का प्रतिपादन भी इन्होंने प्रबलता के साथ किया। यही कारण है कि खरतर विरुद प्राप्त होने पर भी आचार्य जिनेश्वर ने स्वयं के लिए सुविहित शब्द का प्रयोग किया और जिनवल्लभ के समय विधि पर अत्यधिक जोर देने के कारण वही सुविहित पक्ष विधि पक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में यही मार्ग खरतरगच्छ के नाम से अभिरूढ़ हो गया। इनकी असाधारण प्रतिभा, वैदुष्य और आशुकवित्व देख कर मालव और मेदपाटाधिपति महाराज नरवर्म भी उनके प्रशंसक ही नहीं अनुयायी भी बन गये और उन्होंने चित्रकूट में नव-निर्मापित भगवान् महावीर के मंदिर में दान भी दिया। ____ आचार्य अभयदेवसूरि की अंतरंग अभिलाषा, जिसे कि वे पूर्ण नहीं कर पाये थे, उसे आचार्य अभयदेव और प्रसन्नचन्द्राचार्य के संकेतानुसार महाविद्वान् देवभद्राचार्य ने वि०सं० ११६७ आषाढ़ सुदि ६ के दिन बड़े महोत्सव एवं विधि-विधान के साथ इनको आचार्य पद प्रदान कर आचार्य अभयदेवसूरि का पट्टधर घोषित किया। संयोगवशात वि०सं० ११६७ कार्तिक अमावस्या दीपावली की मध्य रात्रि में इस शरीर को छोड़कर जिनवल्लभसूरि चतुर्थ देवलोक को प्रस्थान कर गये। अनुमानतः इनका जन्म समय १०९० मान सकते हैं। वि०सं० ११२५ के पूर्व ही ये आचार्य अभयदेव के सम्पर्क में आ गये थे और ११६७ में इनका स्वर्गवास हुआ। अत: इनका समय १०९० से ११६७ के मध्य स्वीकार किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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