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त एवं अनूत (सत् एवं असत्) की भावना
१०१७ नैतिकता - सम्बन्धी आदेशों (उत्प्रेरणाओं) के रूप में ऋत की धारणा कई स्थानों पर व्यक्त हुई है। ऋग्वेद ( ११९०२६, मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः) में आया है; हवाएं मधु (मिठास) ढोती हैं ( वहन करती हैं), यही नदियाँ भी उनके लिए करती हैं जो ऋत धारण करते हैं। ऋग्वेद (५।१२।२) में आया है - "हे ऋत को जाननेवाले अग्नि, केवल ऋत को ही ( मुझमें) जानो... . मैं बल द्वारा या द्विधाभाव से इन्द्रजाल (जादू) का आश्रय नहीं लूंगा, मैं भूरे बैल ( अर्थात् अग्नि) के ऋत का पालन करूँगा।" पुनः आया है (१०।८७१११ ) ; " हे अग्नि, वह दुरात्मा जो ऋत को अनृत से पीड़ा देता है ( घायल करता है), तुम्हारी बेड़ियों में तीन बार बँध जाय ।" यम ने अपनी ओर बढ़ती हुई यमी को मना करते हुए कहा है-- ( ऋ०१०१०१४) "जो हमने कभी नहीं किया (क्या उसे हम अभी करेंगे ? ) ; क्या हम, जब हमने सदैव ( अब तक) ऋत कहा है, अब अनृत कहेंगे ? (ऋता वदन्तो अनृतं रपेम ) । "
दो-तीन स्थानों पर ऋत को देवत्व अथवा ऐश्वर्य के रूप में ही उल्लिखित किया गया है, यथा "हे अग्नि, हम लोगों के लिए मित्र एवं वरुण देवताओं तथा बृहत् ऋत की आहुति दो” (ऋ० ११७५/५ ) । इसी प्रकार महत् ऋत का वर्णन अदिति, द्यावापृथिवी ( स्वर्ग एवं पृथ्वी), इन्द्र, विष्णु, भरुतों आदि के साथ किया गया है (ऋ० १० १६६/४) । ऋग्वेद में कई स्थानों पर ऋत एवं सत्य का अन्तर स्पष्ट हुआ है। उदाहरणार्थं ऋग्वेद (५/५११२ ) ने विदवे देवों को ऋधीतयः (जिनके विचार ऋत पर अटल हैं) एवं सत्यधर्माण: (जिनकी विशिष्टता सत्य है या जिनके धर्म सच्चे हैं) कहा है। ऋग्वेद के एक मन्त्र (१०।११३।४ ) में ऋत एवं सत्य दोनों शब्द आये हैं और इनका अर्थ एकसा लगता है। एक स्थान (१०।१९०1१ ) पर दोनों पृथक्-पृथक् 'तप' से उद्भूत माने गये हैं। ऋत शब्द का ग्रहण बृहत् अर्थ में हुआ है और सत्य अपने मौलिक सीमित अर्थ (स्थिर क्रम या व्यवस्था) में प्रयुक्त हुआ है। अनृत शब्द ऋत एवं सत्य के विरोधी अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं (ऋ० १०/१०/४ ७ ४९ ३; १०।१२४|५ ) | वैदिक साहित्य में भी क्रमश: आगे चलकर ऋत शब्द पीछे रह गया और सत्य शब्द उसके अर्थ में बैठ गया, किन्तु तब भी इतस्ततः (यथा तै० उप० २।१ एवं १।९।१) ऋत एवं सत्य एक-दूसरे की सन्निधि में पाये गये हैं ।
ऋग्वेद के ऋषि पातक या अपराध के विषय में अत्यधिक सचेत पाये गये हैं और देवों से, विशेषतः वरुण एवं आदित्यों से क्षमा याचना करते हैं और पातक के फल से छुटकारा पाने के लिए प्रार्थना करते हैं। इस विषय में उनके ये शब्द हैं-- आगस्, एनस्, अघ, दुरित, दुष्कृत, दुग्ध, अंहस् । अत्यधिक प्रयुक्त शब्द हैं आगस् एवं एनस् जिनको अत्यन्त गम्भीर एवं नैतिक अर्थ में लिया गया है। और देखिए ऋग्वेद (७।८६ । ३ ; ७१८९/५ = अथर्ववेद ६।५१।३; २।२७१४; २|२८|५; २|२९|१) । विशिष्ट अध्ययन के लिए देखिए ऋग्वेद के ये मन्त्र -- १।१६२ २२; १११८५ ८; २१२९/५ ४११२/४; ४१५४१३; ७/५१११ ७१५७१७ ५१८५७ ७८७ ७ ७/९३ ७ १०/३६।१२; १०१३७/७ एवं ९ । एनस के सम्बन्ध में देखिए ऋग्वेद ( ६ ५१/७ ६/५१/८ ६ ७४ ३ ७/२०११; १११८९११ ; २|२८|७; ७७५२ २; ११९७११-८; २/२९/५; १०।११७/६) । अंहस् के लिए देखिए ऋग्वेद (२|२८|५ २|२८|६; ३|१२|'१४; ८|१९|६; १०/३६।२ एवं ३ ) |
ऋग्वेद में एक अन्य महत्त्वपूर्ण शब्द वृजिन है, जो बहुधा साधु या ऋजु के विरोध में प्रयुक्त होता है। आदित्यों से कहा गया है कि वे मनुष्यों के भीतर पापों एवं साधु (सद् विचारों एवं कर्मों) को देखें, और यह भी कहा गया है कि राजाओं के पास दूर की सभी वस्तुएँ चली आती हैं, अर्थात् राजाओं के लिए दूर की बस्तु भी सन्निकट हो जाती
३. ऋतं चिकित्व ऋतमिच्चिद्धि घृतस्य धारा अनु तृन्धि पूर्वीः । नाहं यातुं सहसा न द्वयेन ऋतं शपाम्यवस्य वृष्णः । ऋ० (५।१२।२) ।
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