Book Title: Devta Murti Prakaran
Author(s): Vinaysagar, Bhagvandas Jain, Rima Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 221
________________ 185 देवतामूर्ति-प्रकरणम् will be freed from the bondage of worldly existence, and will travel to the land of the suras (gods). (121). बाणलिङ्गा तु लिङ्गानामाकर्षाणां स्वयम्भुवा। पीठं प्रासादरूपं च यथेष्टं कारयेत् सुधीः ॥ १२२ ॥ लिंगों का आकर्षण (सर्वोत्तम) स्वयंभू द्वारा सृष्ट बाणलिंग है। उसके लिये यथेष्ट पीठ और प्रासाद विद्वान बनावें। Bana-lingas, bcing self-existent and self-crcated, attract attention by themselves (among all lingas). The base of such lingas and the forin of their temples can be fabricated in an appropriate manner by the wise. (122). एकालादिबाणमहात्म्य- . . एकास्रबाणमारभ्य यावच्चतुर्दशास्रकम् । पूजया परया भक्त्या सर्वसौख्यप्रदं नृणाम् ॥ १२३ ॥ बाणलिङ्ग जो एकास से लेकर चौदह दोना तक होता है, वह परमभक्ति से पूजने से मनुष्यों को सब सुखों को देने वाला होता है। • A Bana-linga which possesses between one to fourleen faces' or angles will grant every possible happiness. to humans, when worshipped with the utmost devotion. (123). शिवतीर्थोदक लक्षण घटिते शतहस्तेषु बाणे पञ्चशतेषु च। . स्वयंभूसहस्रहस्ते शिवतीर्थोदकं स्मृतम् ॥ १२४ ॥ घटित शिवलिङ्ग हो वहाँ सौ २ हाथ तक, बाणलिङ्ग हो वहाँ पाँचसौ २ हाथ तक और स्वयंभूलिङ्ग हो वहाँ एक हजार हाथ तक शिवतीर्थोदक मानना। Where there is a metal (dhatu) Siva-linga an area of one hundred hasta surrounding the linga should be regarded as - "Siva-tirthodikam' (a holy pilgrimage sitc with sacred waters, belonging to Siva); where there is a Bana-linga án area uplo five 1. मु. धातवे।

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