Book Title: Devta Murti Prakaran
Author(s): Vinaysagar, Bhagvandas Jain, Rima Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 314
________________ 276 देवनामूर्ति-प्रकरणम् ग्रन्थकार अपनी लघुता बतलाते हैं श्रीविश्वकर्मण: शास्त्रे पुराणभरतागमे। रूपसंख्याप्यनेकाऽस्ति लेशोऽयं लिखितस्तत: ॥१२५ ॥ श्रीविश्वकर्मा के शास्त्रों में, मत्स्य, आग्नेय आदि पुराण ग्रन्थों में तथा भरत कृत नाट्यशास्त्र आदि में रूपों की संख्या अनेक है, मैंने तो संक्षेप मात्र ही लिखा है। In the works by thc Lord Shri Vishvakarman, in the Shastras, in the Puranas, and in the manual of Bharata (the . . Natya-Shastra), innumerable images have been described. In this presentation, however, I, Mandan, have only written about a very . few of those, and only in a brics, summarised manner. (125). ग्रन्थ समाप्ति यस्या नो कलयन्ति रूपमखिलं ब्रह्मादयो देवता, गौर्या विश्वमिदं विचित्ररचनाश्चर्यं समुत्पद्यते । कल्पान्तावसरे सुरासुरगणो यस्यां समालीयते । तस्मात् सा जगदम्बिकाखिलजगद्वन्द्या सुखं यच्छेतु ॥१२६ ॥ इति श्रीक्षेत्रात्मजसूत्रभृन्मण्डनविरचिते वास्तुशास्त्रे रूपावतारे देवी मूर्तिलक्षणाधिकारो नाम अष्टमोध्यायः ॥८॥ जिस गौरी देवी के समस्त स्वरूप को ब्रह्मा आदि देव भी नहीं समझ सके हैं, जिससे विचित्र रचना वाला यह समस्त जगत् उत्पन्न हुआ हैं और जिसमें कल्पान्त समय में सुर-असुर आदि सब विलीन हो जाते है, ऐसी यह जगत् वन्दनीय श्रीजगदम्बिका देवी सुख को देवे ॥ श्री क्षेत्रात्मज सूत्रधार मण्डन रचित वास्तु शास्त्र-देवतामूर्ति प्रकरण का आठवां अध्याय पूर्ण हुआ। Epilogue - All reverence and homage to the great Jagadamba, the Mother-Goddess, Gauri, whose innumerablc forms are not fully

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