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10/श्री दान-प्रदीप
कही गयी है। पुण्यबुद्धि से युक्त मनुष्य को सुपात्र में दान देकर बाद में पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से फल का नाश हो जाता है। सुपात्र में दान देने के बाद अनुमोदना करने से पुण्य में अत्यधिक वृद्धि होती है। इन दोनों विषयों पर सुधन और मदन की कथा कही गयी है। सुपात्र को दान देने में विलम्ब न करने से मनोहर अर्थ की सिद्धि होती है और विलम्ब करने पर दातार के भावों में कमी आ जाने से पुण्य खण्डित हो जाता है, क्योंकि दोनों ही बातें भाव के आधीन हैं। पुण्य के खण्डित होने से पुण्यानुसार परभव में कृतपुण्य की तरह खण्डित संपत्ति प्राप्त होती है-इस पर कृतपुण्य की कथा कही गयी है। जिसकी बुद्धि एकमात्र पुण्यकर्म में ही तत्पर होती है, वह पुरुष दान करते समय अगर गर्व करे, तो दान का विपरीत फल प्राप्त होता है। गर्व भी दो प्रकार का हो सकता है। प्रथम प्रकार तो यह है कि स्वयं दान देकर गर्व करे-वह स्वनिमित्त गर्व हुआ। दूसरा यह है कि दूसरों को दान देते देखकर स्वयं उसकी स्पर्धा करे, वह पर-निमित्त गर्व हुआ। इस प्रकार दो तरह से दान देकर गर्व करता हुआ व्यक्ति अशुभ कर्म को बांधता है। जो दशार्णभद्र की तरह मोक्ष के करीब हो, उसी की उदार बुद्धि की स्पर्धा संभव है। कोई व्यक्ति स्पर्धायुक्त दान देकर संपत्ति तो प्राप्त कर लेता है, पर वह पुण्य का अनुबन्ध नहीं कर पाता। इसका पुण्य चिरकाल तक नहीं ठहर पाता। इस पर धनसार श्रेष्ठी की कथा कही गयी है। अन्त में ईर्ष्यालु मनुष्य को सत्पुरुषों के गुणों पर भी ईर्ष्या होती है और वह दुष्कर्मों को बांधता है-इस पर कुंतलदेवी रानी का दृष्टान्त देकर इस प्रकाश को पूर्ण किया गया है।
ग्रंथ-प्रशस्ति :-ग्रंथकार महाराज की पट्टावली, ग्रंथ रचने का समय और स्थान
इस प्रकार ऊपर इस ग्रंथ का सार संक्षेप में दिया गया है। फिर अंत में ग्रंथकार महाराज ने अत्यन्त मंगल रूप श्रीमहावीरस्वामी, श्रीगौतम गणधर और अपने श्रीगुरुदेव की पाट-परम्परा देकर अपनी गुरुभक्ति दर्शाकर इस ग्रंथ को पूर्ण किया है।
यह ग्रंथ विशेष रूप से पठन, मनन और बार-बार मनन करने योग्य है। मनुष्य-जीवन के लिए सन्मार्गदर्शक, पिता की तरह सर्व-वांछित-प्रदाता, माता की तरह सर्व-पीड़ा को दूर करनेवाला, मित्र की तरह हर्षवर्द्धक यह धर्म महामंगलकारक कहलाता है। दानधर्म आत्मिक आनन्द उत्पन्न करनेवाला, मोक्षमार्ग को निकट लानेवाला, आत्मज्ञान की भावनाओं को स्फुरित करनेवाला, निर्मल सम्यक्त्व-श्रावकत्व-परमात्मतत्त्व को प्रकट करनेवाला होने से यह ग्रंथ एक अपूर्व रचना है। अतः विशेष लिखने की अपेक्षा आद्यन्त पढ़ने की नम्र विनति है। अन्त में परमात्मा से प्रार्थना है कि शेषनाग की तरह दैदीप्यमान जिनकी नाल है, बड़े-बड़े पत्तों का समूह जिनकी दिशाएँ हैं, जिनकी कर्णिका मेरुपर्वत के समान है, ऐसे