Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 19
________________ 8/श्री दान-प्रदीप में नहीं सुना जाता। वह आज्ञा भी इस प्रकाश में बतायी गयी है। प्रासुक जल का निर्मल भाव से दान देने के कारण रत्नपाल राजा ने दिव्य सम्पत्ति प्राप्त की, उसका चारित्र भी दर्शाया गया है। यह चरित्र इतने अद्भुत और विस्तृत रूप में दिया गया है कि खास रूप से मनन करते हुए पठनीय है। यह प्रकाश यहीं पूर्ण होता है। नवम प्रकाश :-औषधदान का विवेचन और उस पर धनदेव व धनदत्त की कथा-धर्मार्थ दान का छट्ठा प्रकार औषधदान इस प्रकाश में बताया गया है। मुनियों के लिए धर्म साधने में शरीर मुख्य साधन है। अगर वह व्याधि रहित हो, तो धर्म का आराधन अच्छी तरह हो सकता है। पूर्वकर्मों के उदय के कारण मुनियों को भी रोग संभवित है। अतः व्याधि का नाश करने के लिए विधिपूर्वक औषधदान करना चाहिए। अरिहन्त भगवान ने इस दान की मुख्यता बतायी है तथा विशेष रूप से कहा है कि जो मनुष्य हर्षपूर्वक एक भाई की तरह मुनियों की चिकित्सा करता है, वह मनुष्य धर्मतीर्थ का ही उद्धार करता है। इस दान का माहात्म्य उत्कृष्ट है। औषधदान करनेवाला मनुष्य अपने भावरोग की चिकित्सा भी साथ-साथ कर लेता है। यह बताकर-एक वानर ने मुनि के पैर से कांटा निकाला, जिससे उसकी आत्मा उन्नत बनी यह दर्शाया है। इसी प्रकार-श्रीऋषभदेव भगवान ने अपने पिछले भव में मुनि के कोढ़ की चिकित्सा की, जिससे तीर्थेकर नामकर्म का उपार्जन हुआ-इस दृष्टान्त को संक्षेप में बताकर इस औषधदान पर धनदेव और धनदत्त का चमत्कारी, मनन करने योग्य अपूर्व चरित्र बताया गया है। जो मनुष्य इसका मननपूर्वक पठन व पाठन करता है और आचरण में उतारता है, वह अतुल समृद्धि पाकर उन दोनों भाइयों की तरह अन्त में अनन्त मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करता है। यह प्रकाश यहां पूर्ण होता है। दशम प्रकाश :-वस्त्रदान का वर्णन, उसके प्रकार और उस पर ध्वजभुजंग राजा की कथा-पुण्य को पुष्ट करनेवाला वस्त्रदान नामक सातवाँ प्रकार इस प्रकाश में कहा गया है। पवित्र भावों से मुनियों को कल्पनीय वस्त्र का दान करना चाहिए। संयम की रक्षा के लिए साधु को वस्त्र रखने की आज्ञा जिनेश्वर भगवन्तों ने दी है। यहां सात पात्र-सम्बन्धी उपकरण, तीन पछेवड़ी (ओढ़ने का वस्त्र, गोचरी के लिए जाते समय ओढ़ने का सुत्तरा, ऊन की कम्बल और कम्बल के अन्दर रखने का सुतरा-ये तीन), रजोहरण और मुँहपत्ती-ये बारह प्रकार की उपधि जिनकल्पी साधुओं को हो सकती है। उपलक्षण से 2-9 प्रमुख प्रकार की अल्प भी हो सकती है। केवल अन्नादि आहार के निमित्त खास उपकरण विशेष और चोलपट्टा-ये दो व पूर्व के बारह मिलकर चौदह प्रकार की उपधि स्थविरकल्पी साधुओं को होती है। यह बताकर सचेलक व अचेलक-दो प्रकार के धर्मों का स्पष्ट विवेचन, वस्त्रदान की महिमा और उस पर ध्वजभुजंग राजा की कथा बतायी गयी है। उसके पूर्वभव का वृत्तान्त

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