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6/श्री दान-प्रदीप
करनी चाहिए। जैसे–भरत राजा, दण्डवीर्य राजा, कुमारपाल आदि ने की थी। महान पुरुष श्रीरामचन्द्रजी ने अरण्य में रहते हुए भी उस प्रकार की भक्ति की थी-यह वृत्तान्त इस प्रकाश में कहा गया है।
__संयम का साधन शरीर होने से, वह जिसके द्वारा टिका रहे, वैसा अशन-पानादि मुनीन्द्रों को देने चाहिए, जिससे तप, चारित्र व ज्ञान की भक्ति होने से दाता को उसकी प्राप्ति हो सकती है। इसकी पुष्टि के लिए पाँचवें अंग में श्रीगौतमस्वामी ने भगवान श्रीमहावीरस्वामी से पूछा था कि दीर्घ आयुष्य की प्राप्ति किस प्रकार होती है? तब प्रभु ने जो फरमाया, वह यहां मनन करने योग्य है। एषणीय और अनेषणीय अशनादि देने से क्या लाभ–अलाभ होता है-इसकी वास्तविकता के साथ साधु का दृष्टान्त, मुधादान (बदले की इच्छा के बिना), मुधाजीवी (केवल रत्नत्रयी की आराधना के निमित्त) पर दृष्टान्त, दान के आठ प्रकार, वसति-शयनादि का वर्णन और उस पर वंकचूल की कथा, शय्या पर कोशा वेश्या, उपाश्रय के दान पर अवन्ती सुकुमार, वसतिदान पर तारचन्द्र-कुरुचन्द्र की कथाएँ विस्तार से बताकर जन-समाज पर अनहद उपकार किया है। पठन करनेवाले प्राणी उसी प्रकार आचरण करते हुए अर्थात् शुद्ध भाव से वैसा दान देते हुए उत्कृष्ट पुण्य का उपार्जन करते हैं। इसी बात के साथ यह प्रकाश पूर्ण होता है।
पंचम प्रकाश :-शयनदान का वर्णन और उस पर पद्माकर राजा की कथा-आठ प्रकार के दान के साथ वसतिदान के विषय में पूर्व प्रकाश में हकीकत और कथा-दोनों दी गयी हैं। इस प्रकाश में दूसरे शयनदान का पहले सामान्य अर्थ बताया गया है। वर्षाकाल और शेषकाल की अपेक्षा से दो प्रकार का शयन कहा जाता है। फल की इच्छा किये बिना शयनदान देनेवाले को सरलता से मोक्ष-लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसका स्पष्ट उल्लेख करके उस पर पद्माकर राजा की विस्तृत कथा दी गयी है। यह पद्माकर राजा अपरिमित सुकृत्यों के द्वारा धर्मोद्योत करते हुए पात्र को निर्दोष शयनादि का दान करते हुए श्रावक धर्म का शुद्ध रीति से पालन करके देवलोक में गया। देव-मनुष्य के आठ भवों तक शयनदान के पुण्य रूपी कल्पवृक्ष के रूप में अद्भुत भोगों को भोगकर निर्मल चारित्र का पालन करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करके मोक्ष में गया। यह चरित्र इतना अधिक रसदार है कि सरल हृदयी मनुष्य को उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है और वह त्वरा से उसका अधिकारी बन जाता है। यह पढ़ने पर ही जाना जा सकता है। इस प्रकार पाँचवाँ प्रकाश यहां पूर्ण होता है।
षष्ठम प्रकाश :-आसनदान का वर्णन और उस पर करिराज की कथा-इस प्रकाश में उपष्टम्भदान के तीसरे भेद आसनदान का वर्णन किया गया है। वर्षाकाल में निर्दोष काष्ठमय और बाकी के शेषकाल में ऊन के आसन पर मुनि बैठते हैं। अतः पुण्यशाली