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उत्सव अभूतपूर्व था। स्थावर तीयोंके साथ, जंगम तीर्थीका वहाँपर एकत्र संगम हुआ था।
संघने अनेक स्थानोंमें धर्मवर्षा करते हुए फटनीफे चातुर्मास को व्यतीत किया। बादमे दूसरे वर्ष संघका पदार्पण चातुर्मास लिये ललितपुरमें हुआ। यों तो भाचार्य महाराजके संघ सदा ध्यान अभ्ययनफे सिपाय साधुवोंकी दूमरी कोई दिनचर्या ही नहीं है। परंतु ललितपुर चातुर्माससे नियमपूर्वक अध्ययन प्रारंभ हुआ। संघमें क्षुल्लक ज्ञानसागरजी जो भाज मुनिराज सुधर्मसागरजीय नामसे प्रसिद्ध है, विद्वान व भादर्श साधु थे। उनसे प्रत्येक साधु अध्ययन करते थे। इस ग्रंथ कर्ता श्री ऐप्टफ पावकीनिन भी उनसे व्याकरण, सिद्धांत प न्यायको अध्ययन करने के लिये प्रारंभ किया।
आपको तत्वपरिक्षानमें पहिलमे अभिरुचि, स्वाभाविक बुद्धि तेज, सतत अध्ययनमें लगन, उसमें भी ऐसे विद्वान मयमी विद्यागुरुयोंका समागम, फिर कहना ही क्या ? आप यहुन जल्ली निष्णात विद्वान हुए। इस बीच सोनागिर सिद्ध क्षेत्रमें आपको श्री आचार्य महाराजने दिगम्बर दीक्षा दी उससमय आपको मुनि कुंथुसागर नामसे अलंकृत किया। चारित्रमें वृद्धि होनेफे याद शानमें भी मल्य बढ गया। लितपुर घातुर्माससे लेकर सर चातुर्मास पर्यत भाप यरायर अध्ययन करते रहे। आज आप फिटने अंचे दफे विद्वान् पन गये हैं यह लिखना हास्यास्पद होगा। आपको विहत्ता इमीम स्पष्ट है कि अय बाप मरहम प्रथमा भी निर्माण करने लग गये। मकडों वर्ष अध्ययन कर