Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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( ज )
भी ज्ञान बने रहेंगे और यह परिचय ऐतिहासिक होगा। वर्तमान में जो दर्शनों का ऐतिहासिक इतिहास बताया जाता है, वह दर्शनों का संक्षेप मात्र है न कि क्रमिक विकास का इतिहास । इसलिए विशेष दर्शनों के विशेष प्रत्ययों की सेटिंग को समझ कर प्रत्ययों के विकासक्रम का इतिहास लिखा जाना चाहिए। इसमें साम्प्रदायिक ज्ञान के साथ साथ विकासात्मक ज्ञान भी सम्भव होगा और इस प्रकार के अध्ययन से दर्शन के विद्यार्थी को काफी लाभ होगा (के० एन मिश्र) तथा कालान्तर में प्रत्ययों के विकास क्रम का बोध रखने के कारण वह नये विचारों के साथ समस्याओं के समाधान लिए नये दर्शन की संरचना कर पायेगा । इस प्रकार नये वर्गीकरण से नया दर्शन बन सकता है ।
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[ग]
नयी समस्याओं के सन्दर्भ में नया चिन्तन होना चाहिए या नहीं, इस विषयपर त्रिदिवसीय संगोष्ठी में विभिन्न प्रकार के विद्वानों के मत खुलकर बहस के मुद्दे बने । आधुनिक समस्याओं का समाधान भारतीय परम्परागत दर्शनों के अनुगमन से हो सकता है ऐसा कतिपय धर्मधुरीण आचार्य मानते हैं - 'मैं समझता हूँ आधुनिक समस्यायें उन प्राचीन शास्त्रों की विवेचना से सुलझ सकती हैं इसलिए नये दर्शन की जरूरत नहीं है (स्वामी करपात्री जी महाराज ) । पर कतिपय सन्तचरितावलम्बी आचार्य प्राच्य पाश्चात्य के समन्वय से नये चिन्तन की संभावना से इनकार नहीं करते तथा कहते है - भारतीय दर्शन में व्यक्ति को केन्द्र माना गया है, समाज को परिगणित नहीं किया गया । पाश्चात्यदर्शन समाज को विशेष महत्त्व देता है और उस समाज के पोषण से ही व्यक्ति की समर्थता मानता है, अतः दोनों दर्शनों से यह बात स्पष्ट होती है कि समष्टि भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी व्यष्टि तथा समाज का विकास और उत्कर्ष उतना ही आवश्यक है जितना व्यक्ति का (ठाकुर जयदेव सिंह) । यह भी विचारक्रम में प्रश्न के रूप में उभरा कि भारतीय दर्शन एक ओर दुःखध्वंस का आश्वासन देता है तो दूसरी ओर समाज में व्याप्त दुःखों से उदासीन हो जाता है । एक ओर समता के आदर्श को उद्घोषित करता है तो दूसरी ओर सब प्रकार की विषमता को घोषित करता है । दर्शन के इस आत्मगत द्वन्द्व के आधार पर यह आशा करना कि वह धर्म और नीति का नियन्त्रण कर सकेगा, बहुत अधिक होगा ।
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