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भरतेश वैभव रंगविज्ञान | बाह्य विषयोंको जाननेवाला बाह्यविज्ञान है। अपनी आत्माको जानना अंतरंगविज्ञान है ।
जगतमें रत्नपरीक्षा करनेके लिए प्रयत्न करना, हाथी-घोडे आदि की परीक्षा करनेको सिखाना यह भी एक कला है। परन्तु यह बाह्यकला है । आत्मा सम्यग्दर्शन ज्ञानरूप रत्नत्रयस्वरूप है । उन रत्नोंकी परीक्षा कर पहिचानना बड़ा कठिन कार्य है । इसे अंतरंगविज्ञान कहते हैं । इससे ही कल्याण होता है।
काम, आयुर्वेद, मन्त्र, तन्त्र, गणित, संगीत तथा ज्योति सर्व शास्त्र बाह्यविज्ञान हैं। क्योंकि इन शास्त्रोंके ज्ञानसे मनुष्योंको शरीरको पोषण करने का उपाय ज्ञात होता है। परन्तु आत्मा निर्मल स्वरूप है। उसमें और उनके निर्मल गुणोंमें कोई भिन्नता नहीं है ऐसा समझकर उसका विचार करना अंतरंग विज्ञान है । यही उपादेय है।
छन्द, अलंकार और नाट्यशास्त्र आदि ब्राह्म ज्ञानके साधक हैं, क्योंकि इनसे अल्प समयके लिये मनोरंजन होता है इसलिए बाह्यविज्ञान है ता आत्मः अहो साताको भर जाता है; परन्तु इन सब विकल्पोंको छोड़कर आत्मतत्वको ही विचार करना अंतरंग विज्ञान है। ___ बेद, पुराण, तर्क इत्यादि शास्त्रोंका जानना बाह्य विज्ञान है । आत्मा और शरीरको भिन्न करके असली स्वरूपका चितवन करना अंतरंग विज्ञान है। इस प्रकार लोकमें और भी जितनी कलायें हैं, जो आत्मपोषणमें सहकारी न होकर शरीरपोषणमें निमित्त हों एवं भौतिक उन्नतिके साधक हों उन्हें बाह्यविज्ञान कहना चाहिये । जो ज्ञान आत्महितका साधक हो जिसके मनन करनेसे आत्मा परिशुद्ध होता है, जिससे लोकमें आत्मोन्नतिका आदर्श स्थापित होता है उसे अंतरंग विज्ञान कहते हैं।
राजन् ! प्रत्येक जीव अनेक भवोंमें बाह्य विज्ञान अनेकबार प्राप्त किया और खोया, परन्तु अंतरंग विज्ञानकी प्राप्ति एकबार भी नहीं हुई। क्योंकि वह सामान्य विज्ञान नहीं है। यदि कहा जाय कि वह मुक्ति पद्यके लिये कारण है तो अनुचित नहीं है। वह मनोरथको पूर्ण करता है। कल्पवृक्ष, कामधेनु तथा चिन्तामणि रत्न भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते हैं। लोकमें कोई भी वस्तु उसके समान नहीं है ।
राजन् ! जिस राजाको वह अलौकिक विज्ञान प्राप्त होता है उसके