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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १५ चाहि सभा मनि देखि हर्ने गरि, डारि दई चित चौंकि परी है। रांम बिना मनि फोरि दिखावत, काटि तुचा यह नाम हरी है ॥२८
बिभीषन जू को टोका इंदव भक्ति बिभीषन कौंन कहै जन, जाइ कहीस सुनौं चित लाई ।
चालत झ्याझि अटक्कि परी, बिचि मानुष येक दयोल बहाई । जाइ लग्यौ तटि राक्षस गोदन, ले करि दौरि गये जित राई। देखि र कूदि परयौ सु ठरचौ जल, आजहिं रांम मिले मनु भाई ॥२६ ता छिन रीझि दई बहु दैतन, आसन मैं पधराइ निहारै। आनन अंबुज चाहि प्रफुल्लत, आप खड़ी' कर दंड सहारै। होत प्रसन्न न मांहि डरै अति, धाम रहौ मम राइ उचारै। पार करौ सुख सार यही बड़, दे रतनांदिक सिंध उतारै ।।३० नाम लिख्यौ सिर रांम सिरोमनि, पार करै सति-भाव उचारै। ठौर वही नर रूप भयो फिर, झ्याज हु आइ गई सु किनारै। जानि लयो वह पूछत है सब, बात कही यन लेहु बिचारै। कूदि परयौ जल देखि कुबुद्धिन, जाइ चल्यौ हरि नाम उधारै ॥३१
__ सवरो जू की टोका आरनि मैं सवरी भजि है हरि, संतन सेव करयौ निति चावै । जांनि तिया तन न किया कुल, या हित नै किन हूं न लखावै। रैंनि रहै तुछ माग वुहारत, आश्रम मैं लकरी धरि जावै। गोपि रहै रिष जांनत नांहि न, प्रात उठे सब आश्चर्ज पावै ॥३२ मातंग ईंधन बोझ निहारत, चोर यहां जन कौंन सु प्रायो। चोरत है निति दीसत नांहि न, येक दिनां पकरौ मन भायौ। चौकस रैनि करी सब सिष्षन, आवत ही पकरी सिर नायौ । देखत ही द्रिग नीर चल्यौ रिष, बैंनन सू कछू जात कहायो ॥३३ नैन मिले न गिनै तन छोत न, सोच न सोत परी न निकारै। भक्ति प्रभाव भलै रिष जांनत, कोटिक ब्राह्मन या परिवारै। राखि लई रिष आश्रम मैं उन, क्रोध भरे सब पांति निवारै। आवत रांम करौ तुम द्रसन-मै प्रलोकउ जात सवारै ॥३४
१. पड़ो।
२. उवार।
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