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राघवदास कृत भक्तमाल ___ लालाचार्य लक्ष मगन, राघो जाने पंथ हूँ।
रामानुज जा-मात की, वात सुनत हरि भक्ति ह ॥११६
टोका
मत रांम अनुज्जह धीपति की सव, बात सुनौ जब बधव मांन । गयंद चौगुन प्रीति करी कुल बंधव, रीति बनैं न नहीं घटि जान। छद साध सरूप बह्यौ सब प्रावत, ल्याइ घरां सु वनाइ बिमांन ।
लै तटि जात बजावत गावत, दागत रोवत यौ सुख मानें । ६६ न्यौतत बिप्र महोच्छव मैं, उनमांनि लियौ फिरि आवत नाहीं। है इक ठौर कहै सब कोहु त, बोलि उठे सब ह्यौ सव आंहीं। जीमत ना हम जाति न जांनत, मत्त भलौं घरि अांनि रु दांहीं । पंचन की सुनि बातहि सोचत, पूछन कौं गुर 4 चलि जांहीं ॥९७ रांम अनुज्जहि ढोक दई मम, बिप्र न जीमत बात जनाई। आप कही परभाव न जानत, जानत है सुर पावत आई। देखत ही सुर प्राइ गये ढिग, पंचन कौं भुज च्यारि दिखाई । जीमन द्यौ इन स्वास न काढहु, हासि करा जब ये फिरि जाई ।।६८ देवन देखि प्रणांम करी परि, आज दया करि मो बड़ कीन्हौं । भोजन. पाइ गये नभ मारग, बिप्रन मैं किनहूं नहि चीन्हौं । पाइ प्रसाद सराहत है सुर, साधुन को पर भावहि भीन्हौं । जात भयो अभिमांन गये घरि, लाज न ये किणका चुनि' लीन्हौं ॥६६ पाइ परै बिनतीहु करै मन, दीन धरै हम चूक हि छांडौ। संत कहै तुमरौ उपगार, उधार भयो मम बाद न मांडौ । भक्ति धरौ उर दास करौ हम, है चित मैं मति हांसि न भांडौ। दे उपदेस किये सब को सिष, गाड़ि दई ममता खिण खांडौ ॥१००
मूल] छगै जन राघो राखे रामजी, जन के पग जल ते अधर ॥टेक
इक श्रीसंप्रदा महंत, सिषन सुरसुरी दिढाई। इकही कहिये कांत, पाव जिन बोरे जाई। पृथी प्रकर्मा देहुं, आप यहु प्रारंभ कीन्हौं ।
षट-ब्रष लौं अटि खोजि, आय उन दर्सन दोन्हौं । १. चुगि।
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