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उभै भ्रात कलिजुग प्रगट, भक्ति सथापन कारने ॥० नित्यानंद बलिभद्र, कृष्ण चैतन्य
१. जग ।
कृष्णघन ।
सेवत ।
कोयो दूरि अधर्म, धरम बर थप्यौ भजन-पन | प्रेम रसांइन मत बड़े, जन श्रंध्री जो नर लेवे नांव, ताहि उत्म गति पूरब गौड़ बंगाल के, तारे जन उभै भ्रात कलिजुग प्रगट, भक्ति स्थापन कारनें ॥२१६
राघवदास कृत भक्तमाल
नित्यानन्द महाप्रभु को टोका
मत्त- आप सदा मदमत्त रहे. बलिदेव चहै पुनि प्रेम मताई । गयंद वै निति आनन्द रूप धरचौ प्रभु, आइ भरी तऊ है चित चाई । छंद भार भयौ न सभार सरीर हु, पारख तौं महि राखि धराई | कैत हु तें सुनि कान धरे जन, होइ गई मतवारि सभाई || ३०७
श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु को टीका गोपिन की रति देखि थके हरि, या तन मैं गौर तनी सब और रही बनि, रंग खुल्यौ कृष्ण सरीरहि लालप श्रावत, जांनत हूं पुत्र यसोमति होत सची सुत, गौर भये गन मांझ नचाई || ३०८ प्रेम हुवै कब हेम डरौ तन, अंग खुलें कबहूं बधि जावे । और नई अस वा पिचकारनि, लाल प्रियाजु ग भाव समावै । ईस्वरता परमांन करौ, जगनाथ हु छेतर देखन आवै । च्यारि भुजा षट बाहु दिखावत, बात अनूपम ग्रंथहु गावै ॥ ३०६ चैतनि स्यांम सु नांम भयौ जुग', ख्यात महंत जु देह धरी है । गौंड जितौ नर भक्ति न जांनत, प्रेम समुद्र बुड़ाय हरी है । संत सिरोमनि होत भये सब, तारन को जग बात खरी है । कोड़ि अजामिल वारत दुष्टन, भक्ति मगन करे भुभरी है ॥ ३१०
टि. रोहणी कुंड ।
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देवत ।
श्रौतार नें ।
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क्यम प्रत ललाई । बन अंग न माई | फिरि यौं मनि आई ।
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