Book Title: Bhaktmal
Author(s): Raghavdas, Chaturdas
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 327
________________ भक्तमाल २५२ ] सांच कहों सत नांहिं गयो तुम, पारख ले नहि तार झुलाये। छोंवत तार भये कर पाद हु, शिष्य करयो हरि के गुण गाये ।।७३२ चौपाई तत सं लगे उभै संग रहिये । अन्तर कथा चली सो कहिये ॥ नृपति शालवाहन की नारी। महाकपटनी अति धूतारी ॥१ सुन्दर सुत सोतिकी जायो। रूप देखि तासों मन लायो । अतिहि बन्यू सु अम्बुज-नैना। महासन्त मुख अमृत बैना ।।२ हित करि लीयो निकट बुलाई। मन माही उपजी सो बुराई ।। लज्जा छोडि करो परसंगू। सनमुख है के देखो अंगू ॥३ कियो शृंगार न वरन्यो जाई। मन हु इन्द्रकी रम्भा आई ॥ मृगनयनी सो विगसी बोले। महा अडिग मन कबहूं न डोले ॥४ कर पकरचो सुन विनती मेरी। है हूं सदा तुम्हारी चेरी॥ कह्यो करहि तौ यौं राजू । सरवस दे सारूं सब काजू ।।५ कर मुक्ती कर कह्यो सुनाई। तुम तो लगो धर्म की हमारी माई ॥ ऐसी कथा का लेहु न नाऊं। नहिं तो प्राण त्यागि मर जाहूं ॥६ काको पूत कौन की माई। दुख दे हूं तोहि कही सुनाई। कियो नहिं सु कह्यो हमारो। अब कौन तोहि राखनहारो॥७ कह्यौ शहर सों द्यों नृप घेरी। काढों नगर ढंढोरा फेरी ॥ अब आई है बेर हमारी। . कछु न राखों मानि तुम्हारी ॥ कर सू कर लियो मरोरी। करी कहां है तैं कछु थोरी॥ होहि चोरंग्यो प्रगट ऐंन। दूरि करों भुज देखत नैंन । तजे अभूषन वस्त्र फारी। गई सु पति पै शीश उघारी ।। कह्यौ मात मत आवे नेरो। तो उन छोड्यो मेरो केरो॥१० मेरी पति सों नेक न राखी। देखि शरीर सु प्रगट साखी ॥ अब हूं प्राण त्यागि मर जाऊं। कहा जगत में मुख दिखाऊं ॥११ देखि गात कामिनी को नेन। पश्चाताप उपज्यो मन ऐंन ॥ दहं दांत विच अंगुरी दीन्ही। कैसी पुत्र कमाई कीन्ही ॥१२ तब कीनी मौज संतोषो नारी। दे सिरोपाव भरतार सिंगारी ॥ तुमको दुष्ट बहुत दुख दीयो। पावेगो सो अपनों कीयो ॥१३ पुत्र नहीं पर बैरी मेरो। अब कोई ल्यावे मत नेरो॥ कीज्यो दूर हाथ पग जाई। जो हमको मुख न दिखावै आई ।।१४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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