Book Title: Bhaktmal
Author(s): Raghavdas, Chaturdas
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 340
________________ छप्पय छंद परिशिष्ट १ [ २६५ इम देखि तखत पुनि नूर को, शाह अकब्बर को संसो मिट्यो । खड़ो करत अरदासि पार किनहुँ नहिं पाए। तुम जहाँन के वीचि खुदा के दोस्त पाए। मेरी बगसो चूक, अकबर ऐसे भाखै । हम यह करत अरदास, साहिब तुम सरनै राखे । ऐसे आप काशिया, अफताप तुदै ज्यूं तम तिप्यो। यम देखि तखत पुनि नूर को, शाह अकब्बर को संसो मिटयो ॥९७६ यों स्वामी दादू चलत, बीरबल अति विलखानों। मोहर रुपैया धरै, प्रभुजी एह रषानों । हम यह हाथ छुयें न लेह को चेला-चाँटो। तुम राजा हम अतिथि देहु विप्रन को बाँटो । बहुरि बीरवल ले गयो, अकबर के दरबार । यौं राघौ चलते रस रह्यो, जग माहिं जय जयकार ॥९८० इंदव प्राय रहे दिवसा सरके तट स्वामि कह्यो सहनान करीजै। छंद शिष्य जगो यह कहत भयो प्रभु ताति जिलेबी जिमावन रीज। जानि गये सबके मन की हरि ध्यान करयो सिधि आय खरीजै। राघौ कहै हरि छाव पठावत पात वची जल मांहि करीजै ॥९८१ आत ही आमेर भई एक नाथहु वैन सुबोलि सुनायो । स्वामी करी जरनां मन में सिष टलिहु जोगि अकाश उड़ायो। स्वामी खिजे सिषगा करूणा पद जोगि सिलासुघरा परि प्रायो। दुष्ट पलें तजि प्राय परयो पग राघौ कहै जब शिष्य कहायो ॥९८२ मनहर छद कपट सों तुरक संगोती लायो ढांक करी, जानि गये स्वामी हरि भोग न लगाये हैं। कह्यो परसाद लेहु स्वामी खोलि ऐहै, बूरा भात मेवा गिरी प्रगट दिखाए हैं। रामत करत सुने माधो, काणि टोंक मधि, स्वामी को बुलाए हिये, अति हुलसाए हैं। राघौ कहै गुरु महा छ में सन्तन देखि, रिधि थोरी जानि प्राय स्वामी को सुनाए हैं ॥९८३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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