Book Title: Bhaktmal
Author(s): Raghavdas, Chaturdas
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 339
________________ २६४ ] भक्तमाल भक्ष भोजन अति भाव सों महल दिखाये निज नये । जन राघौ नृपसों निपट विरक्त वचन स्वामी कहे ॥६७४ बह्मदास ब्रह्म-ज्ञान को भिन्न-भिन्न पूछयो भेद । दादूजी इस देह में कहत है चारों वेद । तब निर्वाण-पद आपणों, स्वामी उचरै बैन । __ जिन सेती द्रव्य-दृष्टि है, सो गुण निरखों नैन। गुरु लक्ष बिन उर वज्र, ब्रह्मा जड़े कपाट । जन राघौ स्वामी कही, विकट ब्रह्म की वाट ।।९७५ इत अनभै को पुञ्ज, प्रतहि कवि चतुर विनाणी। ज्ञान घटा घररांहि, दुहंघां द्वन्द्व बाणी। इत आगम उत निगम, कहां लग वरणों गाथा । तब स्वामी दादू हँसे, बीरबल नायो माथा। चरचा दिन चालीस लों, अष्ट पहर नितप्रति नई। जन राघौ नृप की नसां, मन वच कर्म करि के भई ॥९७६ यों गयो अकब्बर पासि, बीरबल बुद्धि को आगर । हजरति मैं हैरान, साध दादू सुख-सागर । मजब बहुत बसियार, ज्ञानमुक्ति कहत न आवै । तब कही अकब्बर एक वेर मुझि क्यों न मिलावै । दरवड़ जहाँ ले आव, अब तलब बहुत दीदार की। जन राघौ धनि रामजी, यों चोट चुकावै धारको ॥९७७ मनहर छंद नूर हो के तखत रु पाए जाके नूर ही के, नूर ही के दादू दास नूर मन भाव ही। नूर ही के गुनीजन गावत गुणानुवाद, नूर ही को सभा करजोर शीश नावई। धरनी आकाश नाहीं देखे सो अधर माँही, नूर को दिदार कियो पाप-ताप जावही । राघौ कहै ताकी छवि मानो उदय कोटि रवि, तरबत की महिमां कछु कहत न प्राव ही ॥९७८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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