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पृ० २३१, ५० ४६१ के बाद
कडवा तजत
किराट कों, गई अप्सरा वरनकूं ॥
भक्ति करत इक भूप, सही कसरणी प्रति भारी । तब भेटे भगवान, आप त्रिभुवन-धारी ।
नारी पलटि नर भयो, सीत
परसादी पाई ।
पूज्यो निरताई । कही जग - तिरन कों ।
साखी
छप्पय
छंद
दोहा
परिशिष्ट १
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भांड भगत प्रतिछ नृपत, कंवर कठारा की कथा, जन राघौ कडवा तजट किराट कों, गई
खरहंत को वर्णन
सत-संगति परताप तें, निकसि गयो सब खोट । धुनही तोरी धान कै, ग्रायो हरि की वोट ||
पृ० २३३, ५० ४६८ के बाद
अप्सरा वरनकूं ।। १२५१
अंत्यज एक अन्तर मही, धुनि धुनिही
हिरदै धरी ॥
पठाई |
दुनी देख बेहाल, काल को बहुत पसारो । लुक्यो धाम के मांहि, मूंदि परण घर को द्वारो । ग्राम्बानेरी विप्र, तास ने मोठ दईरामजी सैन, भक्त मेरो वह राघौ धनि धनि रामजी, खरहन्त की रक्षा अंत्यज एक अन्तर मही. धुनि धुनिही हिरदै
भाई ।
साहिब के घर वस्तु बहू, खरहन्त अपना खोठ । गेहूं चावल घी घरणा, लिख्या भाग में मोठ ||
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करो ।
धरी ।। १२५२
घिनाणी ।
टूटे व्रत आकाश, कौन करता विन जौरे । परमेश्वर पति राखि, होह परजा के वोरे । बुडत बाजी राखि, विधाता चित्र चौरासी लक्ष जोनि, पूरि सब को ग्रन पारणी । रघवो प्रणवत रामजी, दृष्टि न कीज्यो कहर की । जती सती को पण रहे, करि वर्षा एक पहर की ।। १२६०
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