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परिशिष्ट १
[ २६१ जदपि अजाची जाचई, तो शुभ भिक्षा लीन्ह । राघौ अब हित ना गहै, सो अतीत परवीन ॥१० जन राघौ राजा कियो, विन पर इतो विचार । जे कोई दुर्बल मिलै, ताहि करूं उपकार ॥११ मनकों चाणक दे चल्यो, नृप विवेक को पुंज। राघो गुरू ज्ञानी मिले, जहां सघन वन-कुंज ॥१२ देख्यो लकरी वीनतो, दुर्वल उभाने पाव। जन राघौ नृपनें कही, महोर बताऊं प्राव ॥१३ जन राघौ नृपनें कही, मोहर जिसी मल खात। वर्ष बारह देषत भई, कहूं न चलाई बात ।।१४ राघौ नृप विनती करी, स्वामी में शिष तोर।। पूरे गुरु बिन उर-विथा, मिटे न तिमिर अघोर ।।१५ कही जसू तूं द्रव्य सौं, बन्ध्यो द्रव्य वित-पूर । हं कमीण तूं नृपति नर, भिन कर भजि है दूर ॥१६ नृपति कही भाजों नहीं, मैं राखौं गुरु भाव ।। जन राघौ दण्डव्रत कियो, मस्तक धारो पाव ।।१७ राघौ करि है लोक-लज, कही जसू नृप डाटि । हूं निकसोंगो मीड लै, तूं बैठेगो पाटि ।। ८ नृपति कही चूकों नहीं, धर्म खडग की धार ।। राघौ देखि रु दौरि हूं, लेहूं सिर ते भार ||१६ धन्नि सिष्य वह धनि गुरु, निह-स्वारथ निर्दोष। सहर सहित राघौ कहै, भये भजन करि मोष ॥२०
पृ० १६५, मूल पद्यांक ३१६ के बाद
रामदास वर्णन इंदव आप गऐ बनिजी अनि गांवहि मोट धरें सिर बोझ सु भारी। छंद दास दुखी लखि मोट लई हरि जानि गऐ मन मांहि विचारी ।
होय कढी फुलका जलता तहु जाय कही घरि मोट उतारी। आय रु देखत सो पछितावत रामहि थे सुनि मूरख नारी ॥८८२
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