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भक्तमाल छप्पय ए हद तजि हिन्दू तुरक की, साहिब सों रहे सरख-रू॥ छन्द जांभा जग मघ न्हांन, विष्णु व्यापक जप सीधो।
सिद्ध भयो जसनाथ, भेष भगवां धरि लीधो। उद्धवदास उदास स, सति सों राम बतायो। लाल चाल जंजाल तज्यो, पिवहि कों पायो । राघौ रजमों धारि के, नर-नारी सब पर खरू । ए हद तजि हिन्दू तुरक की, साहिब सों रहे सरख-रू ॥७५६
इति षट् दरशन मध्ये भक्त वर्णन समाप्त ॥ पृष्ट १५८ पद्यांक ४६२ के बाद
नृप चोर वंकचूल वणन साखी) चारि मास चुपके रहे, नीच नगर मधि सन्त।
राघौ यों सिध समझ करि, काल बचायो अन्त ।।१ पुर मधि पूरे सन्त जन, पावस कीयो वदीत । राघौ पुनि ज्ञानी गछे, चित स्वाधीन अतीत ॥२ पुरवासी गोहन लगे, पहुंचावन को पंच। राघौ साधन सुख दियो, उपदेश्यो धम संच ॥३ फहम विना फूल तोरिके, भरि लै आयो गोद । राघौ पुनि प्रगट भय, एक वचन परमोद ॥४ कवर जियो सन्यास-हित, साथ सबद उर धारि । राघो पुनि नगरी रही, वची वहनी अरू नारि ।।५
जसू कुठारा का वर्णन नर-नारी मन जिन जिते, ते नाहिं न माया वसू। राघो त्यागी लष म्होर, लकरी वीन तज्यो जसू ॥६ भूप रूप भगवन्त को, आयो ताके पास । झिलमिलाट करती म्होर, राघो देखी रास ॥७ नीति विचार निपट कर, राघौ नृप ने मूलि। नृप अतीत मै को पड्यो, द्रव्य छुवै नहिं भूलि ॥८ नृप भूषो प्रजा डण्डे, तऊ न या सम भार । राघौ उच्चिष्ट के लिये, वृक-तन है भण्डार ॥
१. सुखरुह।
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