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भक्तमाल
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जमदूत कहै जमरायन सों, तुम्ह काहे को बीच करावत हांसी ? इततै पठवों उत वे न गिनें, हरिजन बीचहि मारि भगासी। पशु मानुष पंखि की कौन चलै, तहां कीट पतंग सबै जु मैं वासी। 'माधोदास' नरायन नाम प्रताप सों, पाप जरै जैसे फूस की राशी ॥६६ डरै धर्मराय उठे अकुलाय, रहे जु खिसाई इक बात चलाई। नाम उचार भयो तिहिं वार, सहि सिर मारग एक न धाई। सुनहु जमदूत कु जान कुपूत, भई भल सूत बचे हम भाई। जहां काल प्रचण्ड को डण्ड मिट्यो, हमरी तुमरी किन बात चलाई ॥६७
पृष्ठ ३० पद्यांक ६५ के बाद
अन्य मत मनहर भयो हूं पिशाच तेरी कूखि अवतार लियो, छंद
मेरे जाने निपटि पिशाचनी तूं कैकयी। हंस हति कुमति तें बांधि धरे वायस कों,
____ अमृत लुटाय के जु वेलि विष की बई। कमल से कोमल चरण रघुवीरजी के,
कैसे वन जैहैं कुश-कण्टक मही छई। मैं तो मरिजेहूं मोसौं कैसे दुःख सह्यो जात,
होणहार हुई और कहा होयगी दई ॥१४८
छप्पय
पृष्ठ ८२ पद्यांक १८६ के बाद
परसजी का वर्णन : मूल मरुधर कलरू गांव परस जहां प्रभु को प्यारो। सतवादी सूतार कर्म कलिजुग तें न्यारो। ता बदलै तन धारि राम रथ-चक्र सुधारयो।
इकलग पूठी एक बिना शल तबै विचारयो। परस गयो जहां भूपति, चित चकृत चरनौं नयो।
'राघौ' समथ्र रामजी, भक्ति करत यों वश भयो ॥४१२ पृष्ठ ८८ पद्यांक २२२ के बाद
भूपति मन्दिर लाय लगी, अति लाट जु अम्बर लाय लगी है। नांहि बुझै सु उपाय करे बहु, हाय खुदा किम चूकि परी है।
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