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राघवदास कृत भक्तमाल
टीका इंदव दास किसन्न सुनार जुगल्ल हु, सेव करै नृति गांन उचारे । छंद होइ गयो गलतांन दिनां इक, नूपर टूटि परयौ न संभार ।
स्यांम लखी गति भंग भई निज, पाय न काढ़ि र लात पगारै। होत भई सुधि नीर चल्यौ द्रिग, कीरति छाइ गई जग सारै ॥६१८
श्रीनाराइनदास बड़, भजन अवधि स्वामी सरस ॥ जोग भक्ति करि अचल, गात अपनै बल राख्यो । प्रानंदघन उर मांहि, स्याम जस अानन भाख्यौ । अस्वर्ज भल चित रहसि, सदा भक्तन सुख दाता। बिदत चैन नर दैन, श्रीनारांइन राता। साध सेव निति प्रति करै, देस उतर गति ता दरस । श्रीनारांइनदास बड़, भजन अवधि स्वामी सरस ॥४८०
टीका
इंदव बद्रियनाथ जु नै चलि प्रावत, सो मथुरा सु किसोर रहाये। छंद मन्दिर लोग बरै दुःख जू तिन, नैन सरूप लगै चित जाये।
आप रक्षा करि है सुख होवत, जांनत नांहि प्रभाव लुभाये। दुष्ट लखे इक पोट धरी सिरि, लेरि चले मग ना दुख पाये ॥६१६ पेखि बड़े नर लेत पिछांनि सु, पाय लग्यौ परनाम करी है। पेखि प्रताप परयौ पग दुष्टहु, कष्ट लह्यौ कहि झूठ मरी है। या करि काज बनै तुमरौ सति, जात नहीं घरि प्रांखि झरी है। संतन सक्ति भयौ उपदेसहु, भक्ति लइ उर बास जरी है ॥६२०
लक्षमी भर भगवानदास, सरल चित्त अति सुष्ट जन ॥
भक्ति भावनां भूप, बिनै उत्म लक्षन घन । पीवत रस भागोत, बरनि चोजा जनि गन । बसत मधुपुरी नित्ति, हेत साधन चरनांमृत । हेरत हरि बिश्राम, नाम गुन रूप यहै बिन । सिथिर बुद्धि उर सहनता, निडर महा छाड़े न पन । लखिमी भर भगवानदास, सरल चित्त अति सुष्ट जन ॥४८१
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