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राघवदास कृत भक्तमाल
१९० ] मनहर दादूजी के पंथ मैं दलेल जाकै प्रांठौं जांम, चंद
अति ही उदार मन मोहन मेवारे कौं। छाजन भोजन' पाणी वाणी प्रवाह जाकै,
श्रवकौ संतोष दे जितावै मनहारे कौं। विद्या को वनारस पारस जैसे बेधै प्रान,
अति मन ऊजलो उजागर अखारे कौं। राघो कहै जोग की जुगति करि गाये हरि,
पलटि सरीर तन रूप भरे बारे कौं ॥३८६ भानगढ़ नगर में ब्राह्मण को बाल इक,
मृति पाइ गयो सोग भयो उर भारी ये । मोहन कहत यह हम कौं चढाइ देहु,
सर्ब ही कह्यौ जु लेहु अब या जिवारिये। बालक मै स्वास भरि बेगिहि उठाइ लीयो,
जोग की जुगति तन नौतम बिचारिये। मात पिता भईया र कुटंब मन और भयो,
कहै सब देहु अजु हमहि कु मारिये ॥३६०
___ जगजीवनदासजी कौ बरनन दादू को सिष सरल चित, जगजीवन जन हरि भज्यौ ॥
महा पंडित परबीन, ग्यांन गुन कहत न प्रावै। बांणी बहु बिसतरी, साखि दृष्टांत सुहावै। सबद कबित मैं राम राम, हरि हरि यौं करणां ।
गुर गोविंद जस गाइ, मिटायौ जामरण मरणां । दिवसा मैं दिल लाइ प्रभु, बरणधिन कुल बल तज्यौ।
दादू कौं सिष सरल चित, जगजीवन जन हरि भज्यौ ॥३६१ इंदव दादू के पंथ दिप्यौ दिवसा जग, मैं जगजीवन यौँ हरि गायौं । छद कीयो बुद्धि बिवेक सूं ब्रह्म निरूपन, असे अहोनिसि रांम रिझायौ ।
प्रेम प्रवाह कथा उर अंमृत, आप पीयो रस औरन पायो। राघो कहै रसनां रणजीति ज्यू, नांव निसांन निसंक बजायौ ॥३९२
१. मोजन । २. कहन । ३. को।
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