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चतुरदास कृत टीका सहित
छपै
मोहनदास को मूल
है हिरदे सुध हेत सबनि सूं मोहनदास महा सुखदाई | जो सुख कासी कबीर कथ्यो मुख, सो अनभै निति नेम सूं गाई । श्रा को श्रादर आप मिले उठि, ह्वै तन सीतल सोभ सवाई | राघो करें हठ चालन दे नहीं, नांम कबीर की देत दुहाई ॥४३८ रामदासजी ध्यांनदासजी को मूल
रामदास अरु ध्यान की, म्हारि मध्य महिमां भई ॥ ग्यॉन भक्ति बैराग, त्याग जिन नीकौं कोन्हौं ।
दोन्हौ ।
उठाई ।
सगाई ।
भिक्षा खाई मांगि, जागि मन ईश्वर बांणी नृगुण कथी, प्रांत को प्रास साखि कबित पद ग्रंथ, मांहि परब्रह्म अंजन छाड़ि निरंजनी, राघो ज्यौ की रामदास प्ररु ध्यान की, म्हारि मध्य खेमदासजी को मूल
त्यूं कही ।
महिमां भई ॥४३६
इंदव खेम खुस्याल भयौ कुल छाड़ि र, येक निरंजन सूं लिव लाई । छंद हीं तुरक्क र ब्राह्मण अंतिज, साखत भक्तिहि नाव रटाई | त्याग समागम संत सु राखत, चाखत प्रेम भगति मिठाई । राघवदास उपासि निरंजन, मांगि भिक्षा निति नेम सूं पाई ॥४४०
नाथको मूल
नाथ भज्यौ इन नाथ निरंजन, और न दूसर देवहि मान्यौ । यांन र ध्यान भगत्ति अखंडित, मन्न मगन बिरागहि सांन्यौ । मांगि भिक्षा गुजरांन करचौ निति, कांम र क्रोध अहंकृत भान्यौ । राघवदास उदास रहयौ तजि, यौं जग-जाल निराल पिछांन्यौ ॥ ४४१
जगजीवनदासजी को मूल
भादव के जगजीवन दास, पंचम बर्न तज्यौ हरि गायौ । सील संतोष सुभाव दया उर, ता हित ईश्वर' के मन भायौ । त्यांग बिराग रु ग्यान भलै मत, तात भयौ गुर तें जु राघव सोलह ग्यांन गुरू करि, सौ भयौ फिर पंथ
१. मीश्वर ।
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सवायौ । चलायौ ॥४४२
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