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चतुरदास कृत टीका सहित
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और भयौं सुनि है परमोधत, भक्त भलौ वह गाथ सुनीजै । है तव भ्रात लघु सुखदाइक, बात कहै तिनकी मन धीजै । भूपति पुत्र हुतौ वह पूरब, छाड़ि दयौ सब मोचित भीजै । आइ परयो बन मैं नृप औरहि, रूप लखे तन दे सुख लीजै ।। ५५७ अंन र नीर तज्यौ तुमरे हित, जीत नहीं सुधि बेगिहि लीजै । देत भये परसाद चल्यो फिरि ग्राइ भलै लघु सूं हित कीजे । संग चल्यो हरि के पुर कौ चलि, लहि प्रांनि मिल्यौ वह दीजे | बात कही सब धाम तज्यौ प्रभु, जाइ बसे बन मैं जुग भीजे ॥ ५५८ नाराइनदासजो की टीका
छ
बंस अलू महि जांनहु हंसहि, और बड़े सु नरांइन छोटा ।
न कुमावत येह उड़ावत, भाभि दयौ करि सीतल रोटा । दै करि तातहु रीसि करे वहु येहु हुकार भरावहि मोटा । छोड़ि गयो घर जाइ भज्यौ हरि, भक्ति भये बसि बोलत धोटा ||५५६
मूल
यह बड़ी रहरिण राठौड़ की, पृथी परि पृथोराज कबि ॥ टे० surent इष्ट बखifरण, मनो क्रम बचन रिझायौ । बरfरण बेलि बिसतार, गिरा रुचि गोबिंद गायौ । सरस सवइया गीत, कबित छंद गूढ़ा गाहा । बन्यौ रूप सिगार, भक्ति करि लीन्हौं लाहा । जन राघो स्यांम प्रताप तैं, यम श्रागम जांन्यों भूत भबि ।
इह बड़ी रहरिण राठौर की, पृथी परि पृथीराज कबि ॥४५२
टीका इदव बीकहि नेरि नरेस बड़ौ कबि, पिथियराज सु भक्त भलो है । चंद पूजन सौं हित नांहि बिषै चित, नारि पिछांनन नांहि तलौ है ।
देख गयो अनि सेत मनौ मय रूप ह्रिदै महि नांहि भलौ है | तीन भये दिन मुंदरि नै हरि, पीछहु देखत चैन रलौ है ।।५६० कागद देस दयो प्रभु देवल, मैं नहि देखत सो दिन तीनां । भेजि दयौ उलटी उर का लिखि, राज लगे हरि बाहरि लीनां ।
१. मंदरि ।
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