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राघवदास कृत भक्तमाल भवन चौहान की टोका इंदव बात सुनूं कलि के जन की, चहवाण भवन सु रांनहि को है। छंद लाख उभै सु पटा रुजगारहु, संतन सेत सिकार चढौ है ।
लार लगे मिरगी हुत ग्याभनि, टूक' करे सु उदास वडो है। - भक्त कहै मम काम करौं यह, दारहु कौ करवात खंगौ है ॥४५२
भ्रात लख्यौ खग काठहि कौ चुगली, नृप पै करतौ न सकाई । भूप न मानत सौंह करै वहु, जानत भक्तन बात चलाई । बीति गयो ब्रख लागत नै कछु, मारि नख्यौ मम झूठ लखाई। गोठि करी सरजाइ भलैं नृप, ले अपनी तरवार दिखाई ॥४५३ देखत देखत ल्याव भवन्न जु, दार कहै मुख सार कही है। काढि दई बिजुरी सिखिई मनु, मारि नखौ इन झूठ नहीं है। भक्त बचावत साच कयौ यह, दारहु की हरि पक्ष लही है। दूंरण पटा मुजरौ मति आवहु, मैं तन पावत मानि सही है ॥४५४
___ रूप-चत्र भुजजू कौ देवा पंडा को टीका इंदव रूप चतुर्भुज रांनहं आवत, पौटि रहे प्रभु माल सु सीसा। छंद काढ़ि दयौ नृप केस लख्यौ सित, प्राय गये कहि आवत ईसा।
झूठ कही डरप्यौ नृप मारहि, ध्यात भयौ पद सौ जगदीसा। केस करौ सित हौ प्रभुजी मम, कानि भक्त नहीं परिभेसा ॥४४५ भूपति त्रास समुद्र बुड्यौ जन, बैंन मिठास सुनें फिरि जीयौ। बार पिषे सित मांनि दया अति, नैंन भरे नहि साधन कीयौ। भक्तन की प्रतिपाल करै निति, मैं स अभक्त सु कच्चत हीयो। आप बिचारत नाम लजै मम, हैं हमरौ पुनि यो सुख दीयौ ॥४४५ भूपति भोर निहारित है कच, सेत कही डरि पंडहि लाये। खैचि लयौ इक बारहु जाइ र, धार चली रत भूप भिजाये। भूप पर्यो मुरछा तंन सुद्धि न, ऊठत भौ अपराध सुनाये । बैठत राज इहां नहि प्रावहुं, दंड यहै अजहूं नहि आये ॥४५७
. कमधज की टीका भ्रात सु च्यारि उदैपुर चाकर, है इक भक्त बसै बन मांही। आइ प्रसाद करै उठि जावत, नैंक चलौ खरची तव आंहीं।
१. टेक।
२. गही।
३. बतावत।
४. भूमि ।
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