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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १५५ पूछत को तुम जाति बतावहु, मौंन करी सुनि चित्त धरी है। साच कहौ मन संक धरौ मति, बारमुखी कहि पाय परी है। कौस भरयौ धन ल्यौ किरपा करि नांहि करै तब तौ संमरी है। रंग सु नाथ मुवट्ट घराइ, इसौ लखि कै सुख पाई हरी है ।।४७८ वित्र न छूवत ले किंम संग', जु दै हम बांह रहै इत कीजै । द्रिव्य लगाइ सबै करवावत, लै कर चालत थाल धरीजै । मंदर मांहि गई जन प्राइस, ससंकि फिरीस तिया ध्रम भीजै । अापु बुलात हमैं पहरायहु, सं.स नयौं पहराय र रीजै ॥४७६
मुल यम भक्ति पैज कलिकाल मैं, तिहुं जुग सूं राखी अधिक ॥ ठग ठाकुर दै बीचि, भक्त सूं सौगंध कोन्ही । बहुरि हत्यौ बन मांहि, लूटि गहि नारी लीन्ही । घरनी करी पुकार, त्राहि बाबा बिसटारी ।
चोर न कीन्हौं जौर, रामजी रजा तुम्हारी। राघौ राम रतीक मधि, भृति जिवाइ मारे बधिक । यम भक्ति पैज कलिकाल मैं, तिहुँ जुग सूं राखी अधिक ॥२९७
बिप्र हरि भक्त को टोका इंदव ब्राह्मन लै मुकलाव: चल्यौ तिय, है भगती जुग वात जनावै । छंद मारग मैं ठग भेटत पूछहि, जात कहां ज्यतही तुम जांवें।
वाग छुडावत लै बन जावत, है अति सूधि हु चित्त न आवै। रांम दये बिचि तौहु डरै मन, भांम कहै हरि नाम सुनावै ॥४८० संग चले मन भीत करौ अव, भक्ति सची पतनी मम जांनो। जां बन मैं दिज क्षिप्रहि मारत, भाग चले सुं बधू बिलखांनी। पीछह देख तबै समुंवौ चलि, देखत ह बिचि सो वह प्रांनी। आइ र राम सबै ठग मारत, ज्याय लयो जन रीति बखांनी ।।४८१
मूल छपै गाथ सुनत नृप भक्त की, हरिजी सूं हित होइ है ॥ छंद स्वांग संत को धरै, तास जानें गोबिंद गुर।
१. रंग। २. बिसठारी।
३ मुकलाइ। ४. भात ।
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