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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ११९ सूर सट्टसि कहि, काव्य मरम कोऊ नहीं पायौ।
रहसि भक्ति गुन रूप, जनन कर्मादिक भायौ। छपन भोग पद राग तें, पृथु नांई दुलराई है। संत दास को सेव हरि, आइ निवाई पाई है ॥२३५
टीका
इंदव बास निवाइ सु गांव हरो मन, भोग छतीस प्रकार लगाये । छंद प्रीति सची जग मांहि दिखावत, सेव भलैं जगनाथजु पाये । - भूपहि रैंनि कह्यौ जन नाम स, संतहि के घर जैवत भाये। भक्ति अधीन प्रबोन महाजन, लाल रंगील जहां तहां गाये ॥३६०
मूल छपै सूर मदनमोहन की, नाम शृंखला अति मिली ॥
स्यांमां स्याम उपास, गोपि रस ही को रसिया। राग रंग गुन टेर हुतौ, अगिलौ बृज बसिया। बरन्यौं मुक्षि सिंगार, सबद मैं अठ रस नांहीं। मुखि निकसत ही चल्यौ, गयौ द्वारावती मांहीं। जुमला अर्जुन द्रुमन ज्यूं, अजसुत की प्राग्या पिली। सूर मदनमोहन की, नाम शृखला प्रति मिली ॥२३६
मूल . मनहर __ मदनमोहन सूरदास पासि राख्यौ हरि प्राप,
थाप्यौ नाम धरि ताको जस गाइये। जैसे मिसरी मैं बस बिकत महंगे मोल,
रांम होत रांम बोले जो मैं भेद पाइये ॥ जैसे कृत कागद मैं उतम इलोक होत, - ताहि सुनि देखि सनमुख सिर नाइये। राघो कहै राज मधि राम जस गायौ नीकै,
धनि करतार कबि छाप न छिपाइये ॥२३७
टोका नाम सु सूर खुले दिग कंजहु, रंग झिले पिय जीय ज्यवाये । मांमिल आप संडील लख्यौ, गुर बीस गुने दमरा पुरि लाये।
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