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चतुरदास कृत टीका सहित
[ १०५ लेइ उठाइस बोझ सबै, हरि जाइ रहे समधी पुर जांनौं । भेजत है नर आइ र देखत, फौज किसी यम पूछि बखांनौं ॥३०४ येह जनैत मनौं नरसी जन-जन रसी नरसी इन ध्यावै ।
आंनि कहु' यह बुद्धि गई वह, साच कहैं हमहीं डहकावै। ये तहि आत सगाइ करो द्विज, मात नहिं तनि बात सुनावै । तो धन सौ इक फूस सरै नहि, देखहु ता लकुटा परभावै ॥३०५ देखन कौं चलि जात बरातहि, मान मरयौ द्विज सूं कहि राखौ । पाइ परै किरपा करि है जब, जाइ परे हम चूकहि नांखौ । भक्ति मिले उठि कृष्ण मिलावत, सौंपि सुता इन बीनति भाखौ । भेजि दई लखमी उतहू हरि, आत भये परणाइ र पाखौ ॥३०६
इति श्री विष्णुस्वामि संप्रदा
छपै
अथ माध्वाचारिज संप्रदा : [मूल] रघवा प्रणवत रांमजी, मम दोषो नहीं दीयते ॥टे०
आदि बृक्ष बिधि नमो, निगम नृमल रस छाते। मध्वाचारय मधुर पीवत, अमृत रस माते । तास पथित भू प्रगट, संत अरु महंत निसतरे। हरि पूजे हरि भज, तिनहि संग बहुत निसतरे। मैं बपुरौ बरनौं कहा, जारणी जाइ न जीय ते। रघवा प्रणवत रांमजी, मम दोषो नही दीयते ॥२१७ ये पांच महंत परसिध भये, ज्ञांनी गौड़ बंगाल मधि ॥ नित्यानंद श्रीकृष्ण-चैतन्य, भजि लाहो लीयो। रूप सनातन राम रटत, उमग्यौ प्रति हीयौ । जीउ-गुसांई खीर-नीर, निति निरनौं कोयौ।
जै जै जै त्रिलोक ध्यान, ध्रुव ज्यूं नहीं बीयौ। राघो रीति बड़ेन की, सब जाने बोले न बधिः। ये पांच महंत परसिध भये, ज्ञांनी गौड़ बंगाल मधि ॥२१८
१. कहि यह। २. भक्त।
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