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चतुरदास कृत टीका सहित
[ ६३ नांव बतावत ज्ञान सुनावत, श्रीरंग बोलत बाग चलीजे। जात भये जन बाजन ले करि, जाइर ल्यावत संत पतीजे । राखि घरां सब बात बखांनत, स्वामि कही चलि ताल रहीजे । लेतां करि उन आतक डेरनि, रूपवती लखि सिष्ष करीजे ॥१५८ भाव भरयौ उर नांव धरचौ उभ, तीरथ जा करि टोडहि आई। पांचक डारहु बांसन ल्यावत, द्यौर छरी नटि हासि कराई। बोझ खरा जल पीव न जातस, हाथ अठार बधे रहराई । ब्राह्मन पंथ पुकार रह्यौ तब, पूछत स्वामिन क्या दुख भाई ॥१५६ धीह कवारि नहीं घर में धन, आप कहै चलि तोहि दिवांऊं। भद्र कराइर भेष बनावत, बोलिय ना नृप पासि पुजाऊं। ले करि जात भये जन म्हैलन, पूजि इन्है सुनि भेद बताऊं। ये हमरे गुर के सम जानहु, भेट करी बहु चालि नड़ाऊं ॥१६० रैनि उछोहुत द्वारवती महि, लागि चिराक बितांन बरै है। भूपति पासि हुते जन देखि र, लेत बुझाइ सु हाथ मरै है। मांनत नांहि कहै सब लोगन, स्वांमिन देखि अचंभ करै है। मांनस भेजि र ठीक मंगावत, प्राइ कही सति पाइ परै है॥१६१ ब्राह्मन आइ कही यक स्वामिन, अंन उपावन वैल दिवैये । तेलक छोकर-पांवन ल्यावत, बैल दयो द्विज जाइ उपैये । बालक रोवत धांम गयो पित, सूरजसेनहि जाइ कहैये । भूप पठावत जाहु उनौं पहि, आइ पर्यो पगि है घरि जैये ।।१६२ काल परयौ सत पन्द्रह बीसक, द्वन्द मच्यौ मरि है सब लोई। स्वामिन कैसु दया मन मैं अति, देत सदा ब्रत आवत कोई। पात भयो धन भूमि गड्यौ बह, देत लुटाइ न राखत सोई। कांन सुने जितने परचे कहि, पीपहि के गुन पार न होई ॥१६३
धनांजो को मूल छपै [संतन के मुख नांखि के, धने खेत गोहूं लुणे॥]
बीज बांहणे लग्यौ, साध भूखे चलि आये। मगन भयो मनमाहि, सबै गोहूं बरताये।
रासरक।
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