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राघवदास कृत भक्तमाल
नांचनि को अति राग सुन्यौ यह, नाथ सुनै सुर चित्त धरयौ है। रीझि गये उन पासि बुलावत, साथि चलावत लाज तरयौ है ।।२६५ मंजन अंजन कौं करवाइ, सुबास लगाइ र देवल ल्याये । देखि हुई मत लेत भई गति, लाल कहै लखि मोहि सुहाये । नाचत गावत भाव दिखावत, नाथ रिझावत नैन लगाये। होत भई तदकार तज्यौ तन, आप मिलाइ लई सु रिझाये ।।२६६ सूरहु सागर प्राइ कहै पद, गाइ इसे सम' छाइ न आवै। सातक पाठक गाइ सुनावत, सूर हसे परभात बतावै । चिंत भई हरि जांनि लई पद, बेस बनाइ र सेज रखावै । फेरि सुनावत लै सुख पावत, पच्छि बतावत सो सब गावे ॥२६७ पाव चिग्यौ तब कूप परे तन, छूटि गयौ जब नौतम पायौ । दास दुखी सुनि नाथ लखी मनि, आपटि ग्वाल सरूप दिखायौ। जात भये गिर-गोवर पासिक, बल्लभ कौं परनाम कहायौ । म्हौर बतावत खोदत पावत, संक नसावत यौं प्रभु पायौ ॥२६८
मूल हरदास रसिक असो भयो, पास धीर कीयो उदित ॥ कुंज-बिहारी भजत, नाम मिश्रत पृय लागे। निरखत रंग बिहार, बात सुख सौं अनुरागे। ग्रंधब ज्यूं करि गांन, जुगल सरदार रिभावै। नबेदन भरपाइ मोर मंछा कपि ज्यावै । भूप खरे रहे बारनै, करि दरसन होवै मुदित । हरदास रसिक असौ भयो, पास धीर कीयो उदित ॥२१३
टीका इंदव है हरदासहि छाप रसिक्क, सहौ रस ढेर२ हरी बुधि लाई । छंद अत्तर ल्याइ दयो कि निचौड़न, नांखि पुलांनि गयो उर आई।
देखि उदासहि लाल दिखावत, खोलि दये पट गंध लुभाई। नीर न खावत पारस की, पथरा कहि के जब सिष्ष कराई ॥२६९
१. मम।
२. टेर।
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