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राघवदास कृत भक्तमाल
ऊपजे सपूत सिष द्वादस दुनी मैं दीप,
चंदन सू चंदन कपूर जैसे केरि के। राघो कहै पंथ पाज थापिकै भगत राज,
पूरौ गुर पूरी साज सिर तपै सुमेर के ॥१२३ स्वामी रामानंदजी के आनंद के कंद सिष,
तहां दस दीरघ अनंतानंद पाट की। मन बच क्रम धर्म धारचौ सेवा जाप' पन,
काम क्रोध जीत्यौ मन नमल निराट को। बड़ेन को रीति अति प्रीति परमेसुर सूं,
गुरु ज्यौं पहूंच्यौ धुर ज्ञांनी वाही घाट को। राघो कहै राति दिन राम न बिसारयौ छिन,
तारिक त्रिलोक-मधि बरण बिराट कौ ॥१२४
छ
कबीरजी कौ मूल अथाह थाह पांऊं नहीं, क्यौं जस कहूं कबीर कौ॥
श्रीरामांनंद को सिष, जाति जग कहै जुलाहौ। कासी करि बिसरांम, लीयो हरि भक्ति सु लाहौ। हिंदू तुरक प्रमोधि, कीये अज्ञांनी ते ज्ञांनीं।
सवद रमैंणी साखि, सत्य सगलां करि मानी। प्रमानंद प्रभु कारनै, सुख सब तज्यो सरीर को। अथाह थाह पांऊं नहीं, क्यों जस कहूं कबीर कौ ॥१२५ भरम करम तजि प्रसे गुर रामानंद,
उपज्यौ आनंद क्रम जग्यौ यौं कबीर कौं। काम क्रोध लोभ मोह मारिके बजायो लोह,
सूर-वीर समर्थ भरोसौ तेग तीर कौ। साखी सवदी ग्रंथ रमैंगी पद प्रगट है,
सोहै सर्बही कंठि हार जैसे हीर कौ। राघो कहै राम जपि जगत उधारयो जिन,
माया-मधि मोक्ष भयो मोतो जैसे नीर कौ ॥१२६
मनहर
१. पूजा।
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