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राघवदास कृत भक्तमाल भजन सुदिढ़ प्रहलाद, सु पलक' सुत बंदनकारी।
दासातन हनुमंत, सखा पारथ पण धारी। पृथु अर्चा बलिप्पंड ब्रह्मांड, श्रबस दे गयौ हरिचरण ।
जन राघो निज नवधा भक्ति, करत मिट जामरण मरण ॥१०३ - गोह भीलों को राजा सिंगबेर२ (पुर) को टीका गोह किरातन को पति रामहि, प्राइ मिल्यौ बनबास सुन्यौ है । राज करौ यह मौ सुख द्यौ प्रभु, साज तज्यौ पितु बैन सुन्यौ है। दीरघ दुख्ख बिछोह बहै हग, लोहु चल्यौ फिर सीस धुन्यौ है। आंख न खोलत राम बिनां मुख, और न देखत प्रेम पुन्यौ है ।।८४ संबत चौदह बीति गये हरि, प्राय कहै चर रामहि देखौ । मांनत नांहि न रांम कहां अब, नाथ मिले कहि मोहि परेखौ। अंग पिछांनि लये पहिचांनि, जिये मनु जांनि नहीं सुख लेखौ । प्रीति क रीति कही नहिं जात, हिये अकुलात सु प्रेम बसेषौ ॥८५
प्रहलादजी को मूल मनहर धनि प्रहलाद कीन्हौं बाद बिधनां के काज, छंद
जाहु तन प्राज मैं न छाडूं टेक राम की। अगनि तपायौ तन जिय मांहीं एक पन,
हरि बिन जाहु जरि देही कौंन काम की। देख्यौ कसि जल-थल ऊबरचौ भजन बल,
रटत अखंड सरनाई सत्य स्यांम की। असुर का कसर नृस्यंघ को सरूप धरयौ, राघो कहै जीत्यौ जन बांह बर यांम की ॥९८
[टोका] इंदव संकर आदि डरे न इसी रिसि, पासि न जावत श्री हु डरी है। छंद भेज दयो प्रहलाद प्रभु ढिग, जाइ पगौं परनाम करी है।
१ अकूर ।
२. भिंगबेरपु ।
यहां संख्या में ६ का फरक पड़ने का कारण अन्य प्रति में ६२ से ६७ तक के मनहर छंदों का न होना है।
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