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मंत्र एवं विद्या का तथा योग साधना और आत्म-साधना का फल आखिरकार एक रूप हो जाता है, अतः मंत्र-शास्र परमश्रद्धा के योग्य तो हैं ही साथ ही आदरणीय एवं आचरणीय भी है । जिन शासन में मंत्रो एवं विद्याओं का प्रचलन अनादिकाल से है । भुक्ति एवं मुक्ति, प्रेय एवं श्रेय सब की सिद्धि मंत्रो से होती है । अतः जैन शासन में मंत्री का अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान है | मंत्रो की आराधना के बिना जीवन की आराधना अपूर्ण सी रह जाती है ।
... श्री नवकार-मंत्र के विस्तार रूप में रहा हुआ श्री भक्तामर स्तोत्र जिन-शासन के गूढ-रहस्य एवं शक्तिशाली "सूरिमंत्र" के साथ भी जुडा हुआ है । जिन-शासन के तमाम आचार्य भगवंत सूरिमंत्र की नित्य त्रि-काल आराधना-साधना के साथ जप करते हैं उसी सूरिमंत्र की महान-शक्ति का समावेश भक्तामर की गाथा क्रमांक १२ से १९ एवं २१ से २६ में किया गया है । कहने का तात्पर्य यह है कि महान कारुणिक प.पूज्य आचार्य भगवंत मानतुंगसूरीश्वरजी महाराजने सूरि-मंत्र की आराधना एवं साधना, जो पूज्य आचार्य भगवंतों तक ही सीमित है, उसकी श्रावक द्वारा साधना की जा सके, इस दूर-दृष्टि से ऐसे मंत्रों का समावेश भक्तामर के श्लोकों में किया है । अतः सामान्य श्रावक भी इसके आराधना-साधना एवं पठन-पाठन से सूरिमंत्र की प्रसादी पा सकता है । सूरिमंत्र की आराधना से प्राप्त होने वाला फल प्राप्त कर सकता है । . श्री भक्तामर स्तोत्र की १२ गाथा से २० गाथा तक में महा-विद्याओं का होना स्पष्ट रूप से सूरि-मंत्र कल्प में लिखने में आया है।
आचार्य प्रवर पू.सिंह-तिलकसूरिजी द्वारा विरचित “मंत्रराज रहस्य" भक्तामर की गाथा नं १३ से ३९ तक आठ महाविद्याओं की साधना विधी बताई गयी है । विद्याों निम्न प्रकार से दर्शाई गयी है।
(१) बंध मोक्षिणी विद्या (२) पर-विद्या छेदिनी विद्या (३) सारस्वत विद्या (४) रोगापहारिणी विद्या (५) विषापहारिणी विद्या (६) श्री श्रीसंपादिनी विद्या (७) दोष निर्नाशिनी विद्या (८) सकल अशिवोपशमनी विद्या
वैसे आचार्य प्रवर पू. गुणाकरसूरिजी ने भक्तामर स्तोत्र के कल्प के अनुसार आठ महा-विद्यायें निम्नोक्त क्रम से भक्तामर के श्लोकों के साथ जोडी हैं ।
गाथा १२ वीं श्री सारस्वत विद्या.... गाथा १३ वीं श्री रोगोपहारिणी विद्या.... गाथा १४ वीं श्री विषापहारिणी विद्या.... गाथा १५ वीं श्री बंध मोक्षिणी विद्या.... गाथा १६ वीं श्री श्रीसंपादिनी विद्या.... गाथा १७ वीं श्री पर-विद्या उच्छेदिनी विद्या.... गाथा १८ वीं श्री दोष निर्नाशिनी विद्या.... गाथा १९ वीं श्री अशिवोपशमनी विद्या....
गोमुख यक्ष यही अनुक्रम आचार्य प्रवर श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी कृत "बृहत श्री सूरिमंत्र कल्प" के विवरण के साथ मेल खाता है ।
परंतु श्री संपादिनी एवं दोषनिर्नाशीनी इन दोनों विद्यामें गुणाकरसूरिजी एवं सिंहतिलकसूरिजी दोनों से आचार्य जिनप्रभसूरिने एक ऋद्धि पद कम दिया है ! अशिवोपशमनी विद्यामें सिंहतिलकसूरिजी नव ऋद्धि पद दिखाते है ! गुणाकरसूरिजी आठ ऋद्धि पद दिखाते है, पर जिनप्रभसूरिजी ने सिर्फ पांच पद दिया हो ऐसा मुद्रितसूरिमंत्र कल्प पृ. ८३ से मालूम होता है । पर यह मुद्रण दोष हो शकता है क्योंकि जिनप्रभसूरिजी कल्प में आगे लिखते है कि अशिवोपशमनी विद्या के प्रत्येक पद का संबध प्रातिहार्यों के साथ करना चाहिए । प्रातिहार्यों की संख्या आठ है । अतः जिनप्रभसूरिजी को भी आठ ऋद्धि पद की अशिवोपशमनी विद्या मान्य होगी एसा मालूम होता है।
आचार्य जिनप्रभसूरिजी ३२ ऋद्धि पदों की भी अशिवोपशमनी विद्या मानते है । श्री सूरिमंत्र के अन्य कल्पकारों ने भी इसी अनुक्रम से आठ महा-विद्याये बताई हैं । आचार्य प्रवर श्री राजशेखर सूरिजी ने जो पाठ दिया है, वह शब्दशः भाषान्तर के साथ यहाँ देने में आता है ।
"एवं तपसा जपेन होमेनाराधिते प्रथमपीठे आचार्यः “सारस्वत, रोगापहारिणी, विषापहारिणी, वन्धमोक्षिणी, श्री संपादिनी, परविद्याच्छेदिनी, दोषनिर्नाशिनी, अशिवोपशमिनी" एता अष्ट महासिद्धीः स्वस्य परस्य वा साधयति । के सारस्वतमुत्पादयितुं, रोगं हर्तु, विषं हर्तु; बन्धं मोक्षयितुं, श्रियं कर्तुं, कार्मणादि हर्तुं दोषं नाशयितुं मरकमुपशमयितुमीहते तदा प्रथमपीठं स्मरेत्, सिद्धिः स्वल्पयापि स्मरणया । आभिरेवाष्टाभिर्विद्याभिः श्री मानतुङ्ग सूरिणा “यैः शान्तराग इत्यादि “जलभार नमैः"
कर
(१८८
रहस्य दर्शन XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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