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एक बालक को उसकी माता ने परमात्मा की प्रार्थना करने के लिए खड़ा किया... थोड़ी देर बाद वालक ध्यान मग्न हो गया और फिर उसने मातृश्री से कहा “हे ! माँ ! मैने भगवान की सुन्दर से सुन्दर प्रार्थना की"... माता ने आश्चर्य से कहा - "बेटा ! तुजे तो एक भी प्रार्थना नहीं आती... तो तूनें कैसे प्रार्थना की? बालक ने सहजता से कहा... हे ! माते ! उत्तम से उत्तम प्रार्थना एवं सुन्दर से सुन्दर प्रार्थना भी बावन (५२) अक्षरों से ही बनती है... इसी लिए भगवान के समक्ष मैनें पूरी (वावन अक्षरों की) "वर्ण-माला) बोल दी... इस से भगवान खुद ही अच्छी से अच्छी स्तुति-प्रार्थना बना लें... ऐसा मैनें भगवान से कह दिया है... कारण, अच्छी से अच्छी कविता भी इन्हीं ५२ अक्षरों से बनती है ।" वैसे देखा जाये तो वर्णो के अन्दर "रूचिर" क्या? ... प्रत्येक वर्ण अच्छे भी हैं तो खराब भी हैं... वे रूचि को जगाते हैं... तथा रूचि का भंग भी करते हैं... अच्छी से अच्छी कविता इन्हीं ५२ अक्षरों में से ही बनती है तो खराव से खराब गाली भी इन्हीं अक्षरों के माध्यम से ही तो बनती है। ... "रूचिरता" वर्ण मे नहीं... परन्तु वर्णो के संयोजन में है । कवि-रत्न पू. मानतुंगसूरीशजी कहते हैं कि वर्ण तो सबके पास होते ही हैं... परन्तु उनका संयोजन अच्छे ढंग से करना यही कला है... यही विशेषता है । इसी लिए यहाँ पर "रूचिर वर्ण' याने “वर्णो" का तथा “शब्दों" का एवं “पद” का रूचिर संयोजन है... अतः इसी से इस स्तोत्र की माला रूचिर वर्ण विविध पुष्पों की बनी हुई है । ... परन्तु ऐसी दिव्य माला एक दिन पहनी (धारण की) और एक दिन नहीं पहनी... ऐसा नहीं चलता है...ऐसी दिव्य प्रभावशाली माला तो सदैव तुम्हारे कंठ में लटकती रहनी चाहिए... । जब डर लगा... जब भय आया... या उपसर्ग आया... या जव मुसीबत में फस गये तब श्री भक्तामर स्तोत्र का पाठ किया... और जब सब ठीक हो गया तव स्तोत्र का पाठ बंद कर दिया । शहर या गाँव में जब पूज्य साधु-भगवंतो का चार्तुमास था, तब प्रातः नित्य भक्तामर पाठ करते थे... अभी जब गुरू-भगवंत विहार कर गये तो प्रमाद वश स्तोत्र पाठ बंद है | “पू. मानतुंगसूरीशजी महाराज कहते हैं कि ऐसा स्वयं की सुविधानुसार पाठ करना और फिर बंद करना... ऐसा नहीं चलता है... "स्तोत्र सज्रं" को "अज्रसं" याने निरंतर धारण करना चाहिए... इस महा-प्रभाविक स्तोत्र का पाठ निरंतर करना चाहिए इसलिए और निर्देश की क्या आवशक्यता है ।
पूज्य मानतुंगसूरीशजी कहते हैं कि अगर तुजे “मान' से उत्तुंग बनना हो तो इस महा-प्रभाविक स्तोत्र का पाठ निरन्तर करना चाहिए ! ... कारण मैंने (मानतुंगसूरि) इस स्तोत्र में ललकार करते हुए कहा हैं कि “भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति" "क्या ये मेरे आदि-देव अपने आश्रितों को अपने जैसा नहीं बनाते ?" इस पद में भी “य इह" शब्द का प्रयोग है । "घत्ते जनो य इह कंठगता मजनं" यहाँ भी “य इह" शब्द का उपयोग किया गया है । “य इह" शब्द की आवृति पूरे काव्य मे सिर्फ दो स्थान पर ही है । पाठकों को चिंतन करना चाहिए कि महा-पुरूषों ने अपने गूढ रहस्यों को अपनी कालजयी कृति (अमर कृति) के माध्यम से किस तरह प्रचारित किया है । हमें इन छिपे हुए रहस्यों को ढूंढ निकालना है... इन रहस्यों को अवश्य प्राप्त करना है । (पू. मानतुंगसूरीशजी ने इस काव्य में आठ प्रकार के भय बताये हैं । ऐ मूर्ख ! तूं ऐसा कैसै कहता है कि भय आयेगा तब मैं भगवान को भनूंगा - मेरे पास रोज समय नहीं है - क्या मुजे रोज कोई भय खा जाता है, कि मैं रोज भक्तामर का पाठ करूं? ... जरा रहस्य को समझ कर उसे प्राप्त कर... कि क्यों पू. मानतुंगसूरीशजी महाराज ने आठ-भयों का वर्णन किया है ?...
क्या तूनें इन आठ प्रकार के भयों को नहीं पहचाना? अभी जान ले ! आत्मा के ऊपर आवरण रूप लगे हुए आठ-कर्म ही आठ-भय हैं । प्रति पल तूं चार धाती कर्मो के उदय से त्रस्त है, ... तो प्रतिपल तूं चार अघाती-कर्मो के उदय से ध्वस्त है ... भय से त्रस्त... भय से ध्वस्त हे मानव ! क्षण भर रूक कर अंतर-आत्मा के विकास का तूं चिंतन करना... | तब तूं जरूर समझ सकेगा कि श्री भक्तामर-स्तोत्र (भक्ति-पूर्ण काव्य) का पाठ नित्य प्रति-दिन ही नहीं... प्रति-क्षण करने जैसा है... जब तक तुझे परमात्मा के गुणों से गुंथी हुई दिव्य-माला का ख्याल नहीं आयेगा, तब तक तेरा जीवन पुष्प खिल नहीं पायेगा... इसी लिए टीकाकार ने "जिनेन्द्र'' ! शब्द से संबोधन कर "गुणै र्निबध्धां' - इस पद को गुणों से गुंथी हुई... इतना ही अर्थ कर संतोष नहीं किया है... । उन्होंने दूसरा अर्थ भी किया है कि "जिनेन्द्रगणै निबिध्धां" जिनेश्वर भगवान के गुणों से बांधी हुइ रूचिर वर्णवाली - विविध पृष्पों वाली दिव्य-माला को जो "अज्रसं" - याने निरन्तर "कंठगताम्" - यानी कंठ में... तथा अपने स्मृति-पटल पर रखता है... वह "मानतुंग' ही बनता है...
जव हमारा चार्तुमास अहमदाबाद के जैन-नगर सोसायटी में था, तब एक विद्वान ब्राह्मण प्रोफेसर से मुलाकात हुई... वे कहने लगे... आपके पूज्य गुरू महाराज और आप सब प्रति-दिन सामूहिक रूप से श्री भक्तामर का पाठ तो करते ही हो... परन्तु मैं भी
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